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________________ AAPAAAAnnary. -712 : १३-३१] १३. ऋषभस्तोत्रम् २०७ 709) एस जिणो परमप्पा णाणी अण्णाणं सुणह मा वयणं ।। .तुह दुंदुही रसंतो कहइ व तिजयस्स मिलियस्स ॥ २८॥ 710) रविणो संतावयरं ससिणो उण जडुयायरं देव । संतावजडत्तहरं तुज्झ च्चिय पहु पहावलयं ॥ २९ ॥ 711) मंदरैमहिजमाणवुरासिणिग्घोससंणिहा तुज्झ । वाणी सुहा ण अण्णा संसारविसस्स णासयरी ॥ ३०॥ 712) पत्ताण सारणिं पिव तुज्झ गिरं सा गई जडाणं पि । जा मोक्खतरुट्ठाणे असरिसफलकारणं होइ ॥ ३१ ॥ तव दुन्दुभिः रसन् शब्दं कुर्वन् सन् मिलितस्य त्रिजगत एवं कथयतीवे । एवं किं कथयति। एष जिनः परमात्मा ज्ञानी। भो लोकाः अन्येषां कुदेवानां वचनं मा शृणुन ॥ २८॥ भो देव अर्थे । भो प्रभो । रवेः सूर्यस्य प्रभावलयं संतापकरम् । पुनः शशिनः चन्द्रस्य प्रभावलयं जडताकर शीतकरम् । भो जिन । तव प्रभावलयं संतापजडत्वहरम् ॥ २९ ॥ भो देव । तव वाणी सुधा अमृतम्। संसारविषस्य नाशकरी। अन्या कुदेवस्य वाणी संसारविनाशकरी न भवति । किंलक्षणा तव वाणी। मन्दरेण मेरुणा मध्यमान-अम्बुराशिनिर्घोषसंनिभा सदृशी॥३०॥ भो जिन । तव गिरं वाणी प्राप्तानां जडानाम् अपि सा तव गीः वाणी । तेषां जडानां गतिः सुमार्गगा। तव वाणी मोक्षतरुस्थाने असदृशफलकारणं भवति । सा वाणी केवलजलधोरणीव ॥३१॥ हे भगवन् ! शब्द करती हुई तुम्हारी भेरी तीनों लोकोंके सम्मिलित प्राणियोंको मानो यह कर रही थी कि हे भव्य जीवो! यह जिनदेव ही ज्ञानी परमात्मा है, दूसरा कोई परमात्मा नहीं है; अत एव एक जिनेन्द्र देवको छोड़कर तुम लोग दूसरोंके उपदेशको मत सुनो॥२८॥ हे देव! सूर्यका प्रभामण्डल तो सन्तापको करनेवाला है और चन्द्रका प्रभामण्डल जडता (शैत्य) को उत्पन्न करनेवाला है। किन्तु हे प्रभो! सन्ताप और जडता ( अज्ञानता) इन दोनोंको दूर करनेवाला प्रभामण्डल एक आपका ही है ।। २९॥ मेरु पर्वतके द्वारा मथे जानेवाले समुद्रकी ध्वनिके समान गम्भीर आपकी उत्तम वाणी अमृतस्वरूप होकर संसाररूप विषको नष्ट करनेवाली है, इसको छोड़कर और किसीकी वाणी उस संसाररूप विषको नष्ट नहीं कर सकती है । विशेषार्थ-जिनेन्द्र भगवान्की जो दिव्यध्वनि खिरती है वह तालु, कण्ठ एवं ओष्ठ आदिके व्यापारसे रहित निरक्षर होती है। उसकी आवाज समुद्र अथवा मेघकी गर्जनाके समान गम्भीर होती है। उसमें एक यह विशेषता होती है कि जिससे श्रोतागणोंको ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान् हमारी भाषामें ही उपदेश दे रहे हैं। कहींपर ऐसा भी उल्लेख पाया जाता है कि वह दिव्यध्वनि होती तो निरक्षर ही है, किन्तु उसे मागध देव अर्धमागधी भाषामें परिणमाता है। वह दिव्यध्वनि स्वभावतः तीनों सन्ध्याकालोंमें नौ मुहूर्त तक खिरती है। परन्तु गणधर, इन्द्र एवं चक्रवर्ती आदिके प्रश्नके अनुसार कभी वह अन्य समयमें भी खिरती है । वह एक योजन तक सुनी जाती है । भगवान् जिनेन्द्र चूंकि वीतराग और सर्वज्ञ होते हैं अत एव उनके द्वारा निर्दिष्ट तत्त्वके विषयमें किसी प्रकारका सन्देह आदि नहीं किया जा सकता है। कारण यह कि वचनमें असत्यता या तो कषायवश देखी जाती है या अल्पज्ञताके कारण, सो वह जिनेन्द्र भगवान्में रही नहीं है। अत एव उनकी वाणीको यहां अमृतके समान संसारविषनाशक बताया गया है॥३०॥ हे जिनेन्द्र देव! क्यारीके समान तुम्हारी वाणीको प्राप्त हुए अज्ञानी जीवोंकी भी वह अवस्था होती है जो मोक्षरूप वृक्षके स्थानमें अनुपम फलका कारण होती है। विशेषार्थ-जिस प्रकार उत्तम क्यारीको बनाकर उसमें लगाया गया वृक्ष जलसिंचनको पाकर अभीष्ट फल देता है उसी प्रकार जो भव्य जीव मोक्षरूप वृक्षकी क्यारीके समान उस जिनवाणीको पाकर (सुनकर) तदनुसार मोक्षमार्गमें प्रवृत्त होते हैं उन्हें १ कबणाणो णाणं, च णगोण्णागं, म श णाणोण्गाणं । २ सब जडुयारयं, श जडयारयं । ३ भश मंदिर। ४ क श 'माणांबु । ५ कथयति। ६भश मंदिरेण ।
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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