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________________ २०६ पद्मनन्दि-पञ्चविंशतिः [705 : १३-२४705) अच्छंतु ताव इयरा फुरियविवेया णमंतसिरसिहरा। होइ असोओ रुक्खो वि णाह तुह संणिहाणत्थो ॥ २४ ॥ 706) छत्तत्तयमालंबियणिम्मलमुत्ताहलच्छला तुज्झ । जणलोयणेसु वरिसइ अमयं पि व णाह बिंदूहि ॥ २५ ॥ 707 ) कयलोयलोयणुप्पलहरिसाइ सुरेसहत्थच लियाई। तुह देव सरयससहरकिरणकयाई व चमराई ॥ २६ ॥ 708) विहलीकयपंचसरे पंचसरो जिण तुमम्मि काऊण । अमरकयपुप्फविट्टिच्छला बहू मुवइ कुसुमसरे ॥ २७ ॥ लक्षणस्त्वम् । सिंहासनाचलस्थः । पुनः किंलक्षणस्त्वम् । कृतकुवलयानन्दः ॥२३॥ भो नाथ । तावत् इतरे भव्याः दूरे तिष्ठन्तु । किंविशिष्टा भव्याः । स्फुरितविवेकाः। पुनः नम्रीभूतशिरःशिखराः । तव संनिधानस्थः तव निकटस्थवृक्षः अशोकः शोकरहितः भवति। भव्यजीवस्य का वार्ता ॥ २४ ॥ भो नाथ । तव छत्रत्रयम् आलम्बितनिर्मलमुक्ताफलच्छलात् जनलोचनेषु अमृतं बिन्दुभिः वर्षति इव ॥ २५ ॥ भो देव । तव चमराणि शशधरकिरणकृतानि इव । पुनः किंलक्षणानि चमराणि । कृतलोकलोचनोत्पलहर्षाणि । पुनः किंलक्षणानि चमराणि । इन्द्रहस्तेचालितानि ॥ २६ ॥ भो जिन । पञ्चशरः कामः त्वयि विषये अमरदेवकृतपुष्पवृष्टिच्छलात् । बहून् कुसुमशरान् पुष्पस्तबकान् मुञ्चति । किंलक्षणस्त्वम् । विफलीकृतपञ्चशरः निर्जितकामः ॥ २७ ॥ किन्तु जड है- हिमसे ग्रस्त है ॥ २३ ॥ हे नाथ ! जिनके विवेक प्रगट हुआ है तथा जिनका शिररूप शिखर आपको नमस्कार करनेमें नम्रीभूत होता है ऐसे दूसरे भव्य जीव तो दूर ही रहें, किन्तु आपके समीपमें स्थित वृक्ष भी अशोक हो जाता है । विशेषार्थ-यहां ग्रन्थकर्ता भगवान् ऋषभ जिनेन्द्रकी स्तुति करते हुए उनके समीपमें स्थित आठ प्रातिहार्यों में से प्रथम अशोक वृक्षका उल्लेख करते हैं । वह वृक्ष यद्यपि नामसे ही 'अशोक' प्रसिद्ध है, फिर भी वे अपने शब्दचातुर्यसे यह व्यक्त करते हैं कि जब जिनेन्द्र भगवान्की केवल समीपताको ही पाकर वह स्थावर वृक्ष भी अशोक ( शोक रहित ) हो जाता है तब भला जो विवेकी जीव उनके समीपमें स्थित होकर उन्हें भक्तिपूर्वक नमस्कार आदि करते हैं वे शोक रहित कैसे न होंगे ? अवश्य ही वे शोकसे रहित होकर अनुपम सुखको प्राप्त करेंगे ॥ २४॥ हे नाथ ! आपके तीन छत्र लटकते हुए निर्मल मोतियोंके छलसे मानो बिन्दुओंके द्वारा भव्यजनोंके नेत्रोंमें अमृतकी वर्षा ही करते हैं। विशेषार्थ- भगवान् ऋषभ जिनेन्द्र के शिरके ऊपर जो तीन छत्र अवस्थित थे उनके सब ओर जो सुन्दर मोती लटक रहे थे वे लोगोंके नेत्रोमें ऐसे दिखते थे जैसे कि मानो वे तीन छत्र उन मोतियोंके मिषसे अमृतबिन्दुओंकी वर्षा ही कर रहे हों ॥ २५ ॥ हे देव ! लोगोंके नेत्रोंरूप नील कमलोंको हर्षित करनेवाले जो चमर इन्द्रके हाथोंसे आपके ऊपर ढोरे जा रहे थे वे शरत्कालीन चन्द्रमाकी किरणोंसे किये गयेके समान प्रतीत होते थे ॥२६॥ हे जिन ! आपके विषयमें अपने पांच बाणोंको व्यर्थ देखकर वह कामदेव देवोंके द्वारा की जानेवाली पुष्पवृष्टिके छलसे मानो आपके ऊपर बहुत-से पुष्पमय बाणोंको छोड़ रहा है ॥ विशेषार्थ- कामदेवका एक नाम पंचशर भी है, जिसका अर्थ होता है पांच बाणोंवाला । ये बाण भी उसके लोहमय न होकर पुष्पमय माने जाते हैं । वह इन्हीं बाणोंके द्वारा कितने ही अविवेकी प्राणियोंको जीतकर उन्हें विषयासक्त किया करता है । प्रकृतमें यहां भगवान् ऋषभ जिनेन्द्रके उपर जो देवोंके द्वारा पुप्पोंकी वर्षा की जा रही थी उसके ऊपर यह उत्प्रेक्षा की गई है कि वह पुष्पवर्षा नहीं है, बल्कि जब भगवान्को अपने वशमें करनेके लिये उस कामदेवने उनके ऊपर अपने पांचों बाणोंको चला दिया और फिर भी वे उसके वशमें नहीं हुए, तब उसने मानो उनके ऊपर एक साथ बहुत-से बाणोंको ही छोड़ना प्रारम्भ कर दिया था ॥ २७ ॥ १ श इच्छंतु। २ क असोहो, भश असोवो। ३ ब-प्रतिपाठोऽयम् । भकच श सरो। ४ भश विठ्ठी। ५क हस्तेन ।
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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