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________________ १४८ awww पचनन्दि-पञ्चविंशतिः [489 :८-४489) ये जित्वा निजकर्मकर्कशरिपून प्राप्ताः पदं शाश्वतं येषां जन्मजरामृतिप्रभृतिभिः सीमापि नोल्लच्यते । येष्वैश्वर्यमचिन्त्यमेकमसमज्ञानादिसंयोजितं ते सन्तु त्रिजगच्छिखाग्रमणयः सिद्धा मम श्रेयसे ॥४॥ 490) सिद्धो बोधमितिः स बोध उदितो शेयप्रमाणो भवेत् ज्ञेयं लोकमलोकमेव च वदन्त्यात्मेति सर्वस्थितः। मूषायां मदनोज्झिते हि जठरे यार नभस्तादृशः प्राक्कायात् किमपि प्रहीण इति वा सिद्धः सदानन्दति ॥५॥ सिद्धाः । रक्षन्तु ॥३॥ ते सिद्धाः मम श्रेयसे। सन्तु भवन्तु । किलक्षणाः सिद्धाः। त्रिजगच्छिखाग्रमणयः । ये सिद्धाः निजकर्मकर्कशरिपून शत्रून् जित्वा । शाश्वतं पदं प्राप्ताः । येषां सिद्धानाम् । सीमा अपि मर्यादा अपि । जन्मजरामृतिप्रभृतिभिः नोल्लध्यते। येषु सिद्धेषु एकम् अचिन्त्यम् ऐश्वर्य वर्तते । असमज्ञानादिसंयोजितं ज्ञानम् अतीन्द्रियज्ञानं वर्तते ॥ ४ ॥ सिद्धः सदा आनन्दति । किंलक्षणः सिद्धः । कृतकृत्यः । पुनः किंलक्षणः सिद्धः। बोधमितिः बोधप्रमाणम् । स उदितः बोधः प्रकटीभूतः बोधः झेयप्रमाणो भवेत् । सेयं लोकं च पुनः अलोकम् एव वदन्ति । इति हेतोः । आत्मा सर्वस्थितः । हि यतः । मूषायां मृन्मयपुत्तलिकायाम् । मदन-उज्झिते मयणरहिते। जाठरे उदरे । यादृक् नभः आकाशः अस्ति तादृशः सिद्धाकारः इति प्राक्कायात् और ज्ञान (केवलज्ञान ) रूप अनुपम शरीरको धारण करते हैं, जो कृतकृत्यस्वरूपको प्राप्त हो चुके हैं, अनुपम हैं, जगत्के लिये मंगलस्वरूप हैं, तथा अविनश्वर सुखरूप अमृतरसके पात्र हैं ; ऐसे वे सिद्ध सदा आप लोगोंकी रक्षा करें ॥ ३ ॥ जो सिद्ध परमेष्ठी अपने कर्मरूपी कठोर शत्रुओंको जीतकर नित्य (मोक्ष) पदको प्राप्त हो चुके हैं; जन्म, जरा एवं मरण आदि जिनकी सीमाको भी नहीं लांघ सकते, अर्थात् जो जन्म, जरा और मरणसे मुक्त हो गये हैं; तथा जिनमें असाधारण ज्ञान आदिके द्वारा अचिन्त्य एवं अद्वितीय अनन्तचतुष्टयस्वरूप ऐश्वर्यका संयोग कराया गया है। ऐसे वे तीनों लोकोंके चूडामणिके समान सिद्ध परमेष्ठी मेरे कल्याणके लिये होवें ॥ ४ ॥ सिद्ध जीव अपने ज्ञानके प्रमाण हैं और वह ज्ञान ज्ञेय (ज्ञानका विषय ) के प्रमाण कहा गया है। वह ज्ञेय भी लोक एवं अलोकस्वरूप है। इसीसे आत्मा सर्वव्यापक कहा जाता है। सांचे (जिसमें ढालकर पात्र एवं आभूषण आदि बनाये जाते हैं) मेंसे मैनके पृथक् हो जानेपर उसके भीतर जैसा शुद्ध आकाश शेष रह जाता है ऐसे आकारको धारण करनेवाला तथा पूर्व शरीरसे कुछ हीन ऐसा वह सिद्ध परमेष्ठी सदा आनन्दका अनुभव करता है। विशेषार्थ-सिद्धोंका ज्ञान अपरिमित है जो समस्त लोक एवं अलोकको विषय करता है। इस प्रकार लोक और अलोक रूप अपरिमित ज्ञेयको विषय करनेवाले उस ज्ञानसे चूंकि आत्मा अभिन्न है- तत्स्वरूप है। इसी अपेक्षासे आत्माको व्यापक कहा जाता है । वस्तुतः तो वह पूर्व शरीरसे कुछ न्यून रहकर अपने सीमित क्षेत्रमें ही रहता है । पूर्व शरीरसे कुछ न्यून रहनेका कारण यह है कि शरीरके उपांगभूत जो नासिकाछिद्रादि होते हैं वहां आत्मप्रदेशोंका अभाव रहता है। शरीरका सम्बन्ध छूटनेपर अमूर्तिक सिद्धात्माका आकार कैसा रहता है, यह बतलाते हुए यहां यह उदाहरण दिया गया है कि जैसे मिट्टी आदिसे निर्मित पुतलेके भीतर मैन भर दिया गया हो, तत्पश्चात् उसे अग्निका संयोग प्राप्त होनेपर जिस प्रकार उस मैनके गल जानेपर वहां उस आकारमें शुद्ध आकाश शेष रह जाता है उसी प्रकार शरीरका सम्बन्ध छूट १च शुदो। २ क लोकं अलोकं च पुनः एव वदन्ति ।
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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