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________________ पभनन्दि-पञ्चविंशतिः [ 169:१-१६९संसारार्णवतारकं सुखकर धर्म न ये कुर्वते हस्तप्राप्तमनर्व्यरत्नमपि ते मुश्चन्ति दुर्बुद्धयः॥ १६९ ॥ 170) तिष्ठत्यायुरतीव दीर्घमखिलान्यङ्गानि दूरं दृढा न्येषा श्रीरपि मे वशं गतवती किं व्याकुलत्वं मुधा । आयत्यां निरवग्रहो गतवया धर्म करिष्ये भरा दित्येवं बत चिन्तयन्नपि जडो यात्यन्तकग्रासताम् ॥ १७०॥ 171) पलितैकदर्शनादपि सरति सतश्चित्तमाशु वैराग्यम् ।। प्रतिदिनमितरस्य पुनः सह जरया वर्धते तृष्णा ॥ १७१ ॥ 172) आजातेर्नस्त्वमसि दयिता नित्यमासन्नगासि प्रौढास्याशे किमथ बहुना स्त्रीत्वमालम्बितासि । अस्मत्केशग्रहणमकरोदग्रतस्ते जरेयं मर्षस्येतन्मम च हतके स्नेहलाद्यापि चित्रम् ॥ १७२ ॥ अनर्घ्यरत्नमपि हस्तप्राप्तम् । मुञ्चन्ति त्यजन्ति ॥१६९॥ बत इति खेदे । जडः मूर्खः। एवम् इति । चिन्तयन् अपि । अन्तकप्रासा याति यमवदनं याति । किं चिन्तयति । आयुः अतीव दीघ तिष्ठति । अखिलानि अङ्गानि । दूरम् अतिशयेन दृढानि सन्ति । एषा श्रीः लक्ष्मीः। मे मम वशं गतवती वर्तते। मुधा व्याकुलत्वं कथम् । आयत्याम् उत्तरकाले वृद्धकाले। निरवग्रहः स्वच्छन्दः । गतवया गतयौवनभरात् । धर्म करिष्ये । भरात् अतिशयेन । चिन्तयन् मूढः मरणं याति ॥१७॥ सतः साधोः। वित्तं मनः। पलितकदर्शनात् अपि श्वेतकेशदर्शनात् । आशु शीघ्रण । प्रतिदिनं वैराग्यं सरति गच्छति । पुनः इतरस्य असाधोः नीचपुरुषस्य । श्वतकेशदर्शनात् जरया सह तृष्णा वर्धते ॥ १७१॥ हे आशे हे तृष्णे। त्वम् । आजातेः जन्म आ मर्याद दयिता स्त्री। असि भवसि । नित्यं सदैव । आसन्नगा निकटस्था असि । प्रौढा असि । अथ बहना किम । स्त्रीत्वम आलम्बिता असि स्त्रीत्वं गता असि । इयं जरा। ते तव सपत्नी । ते तव अग्रतः । अस्मत्केशप्रहणम् अस्माकं केशग्रहणम् । अकरोत् । है हतक भक्ति भी प्राप्त कर ली है, फिर यदि वे संसार-समुद्रसे पार कराकर सुखको उत्पन्न करनेवाले धर्मको नहीं करते हैं तो समझना चाहिये कि वे दुर्बुद्धि जन हाथमें प्राप्त हुए भी अमूल्य रत्नको छोड़ देते हैं ॥ १६९॥ मेरी आयु बहुत लंबी है, हाथ-पांव आदि सभी अंग अतिशय दृढ़ हैं, तथा यह लक्ष्मी भी मेरे वशमें है फिर मैं व्यर्थमें व्याकुल क्यों होऊ ? उत्तर कालमें जब वृद्धावस्था प्राप्त होगी तब मैं निश्चिन्त होकर अतिशय धर्म करूंगा। खेद है कि इस प्रकार विचार करते करते यह मूर्ख प्राणी कालका ग्रास बन जाता है ॥ १७० ।। साधु पुरुषका चित्त एक पके हुए (श्वेत ) बालके देखनेसे ही शीघ्र वैराग्यको प्राप्त हो जाता है। किन्तु इसके विपरीत अविवेकी जनकी तृष्णा प्रतिदिन वृद्धत्वके साथ बढ़ती जाती है, अर्थात् जैसे जैसे उसकी वृद्ध अवस्था बढ़ती जाती है वैसे वैसे ही उत्तरोत्तर उसकी तृष्णा भी बढ़ती जाती है ॥ १७१ ॥ हे तृष्णे! तुम हमें जन्मसे लेकर प्यारी रही हो, सदा पासमें रहनेवाली हो और वृद्धिको प्राप्त हो । बहुत क्या कहा जाय ? तुम हमारी पत्नी अवस्थाको प्राप्त हुई हो । यह जरा (बुढ़ापा) रूप अन्य स्त्री तुम्हारे सामने ही हमारे बालोंको ग्रहण कर चुकी है । हे घातक तृष्णे! तुम मेरे इस बालग्रहण रूप अपमानको सहते हुए आज भी स्नेह करनेवाली बनी हो, यह आश्चर्यकी बात है ॥ विशेषार्थ - लोकमें देखा जाता है कि यदि कोई पुरुष किसी अन्य स्त्रीसे प्रेम करता है तो चिरकालसे स्नेह करनेवाली भी उसकी स्त्री उसकी ओरसे विरक्त हो जाती है-उसे छोड़ देती है। परन्तु खेद है कि वह तृष्णारूप स्त्री अपने प्रियतमको अन्य जरारूप नारीमें आसक्त देख कर भी उसे नहीं छोड़ती है और उससे अनुराग ही करती है । तात्पर्य १भ अमर्यादीकृत्य। २श बहुना स्त्रीत्वं ।
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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