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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शक्ति-निरूपण १५ हैं, अर्थात् उनके विषय में कोई नियम नहीं बनाया जा सकता । यह भी ध्यान रहे कि उपेय अथवा साध्य की प्राप्ति हो जाने पर इन उपायों का कोई महत्त्व नहीं रहता-वे हेय' हो जाते हैं । द्रष्टव्य--- उपादायापि ये हेयास् तान् उपायान् प्रचक्षते । उपायानां च नियमो नावश्यम् प्रवतिष्ठते ॥ वाप० २.३८ । ध्याकरण-भेदेन स्थानि-भेदेऽपि न क्षतिः-~-यहाँ ग्रन्थकार का अभिप्राय यह है कि यद्यपि 'अखण्ड-वाक्य स्फोट' या 'पद-स्फोट' ही अर्थ का वाचक है, परन्तु उनके ठीक-ठीक स्वरूप के ज्ञान के लिये उसमें 'प्रकृति', 'प्रत्यय' रूप अवयवों तथा उनके अर्थों की कल्पना को उपाय के रूप में, व्याकरण शास्त्र में प्रदर्शित किया गया है। उपाय उपेय (ज्ञातव्य) के ज्ञापन के लिये अपनाया जाता है, इसलिये जिस भी उपाय से उपेय का बोधन या ज्ञापन हो सके, उसे अपनाया जा सकता है। अतः उपाय नियत या व्यवस्थित नहीं हुआ करते। इसीलिये भिन्न-भिन्न व्याकरणों में भिन्न-भिन्न अंशों को स्थानी मानने से शब्द या अर्थ के अन्वाख्यान में ठीक उसी प्रकार कोई अन्तर नहीं पड़ता जिस प्रकार भिन्नभिन्न प्रान्तों या देशों में भिन्न-भिन्न लिपि अपनायी जाती है परन्तु उससे अर्थ-ज्ञान में कोई अन्तर नहीं आता। क्योंकि लिपि तो अर्थाभिव्यक्ति का एक उपायमात्र है, इसलिये कोई भी लिपि अपनाई जा सकती है। इसी रूप में 'ल' आदि स्थानी की कल्पना भी 'पठति' आदि शब्दार्थस्वरूप के निश्चित ज्ञान का एक उपायमात्र है । इस कारण किसी भी रूप में स्थानी आदि की कल्पना की जा सकती है। ___व्याकरण-भेद से 'स्थानी' आदि की भिन्नता बहुत स्वाभाविक है । यह आवश्यक नहीं है कि एक व्याकरण के एक सम्प्रदाय में निर्धारित 'स्थानी' तथा 'आदेश' आदि की प्रक्रिया को व्याकरण के अन्य सम्प्रदाय वाले भी मान लें। उदाहरण के लिये प्राचार्य पाणिनि के व्याकरण में "अस्ते भूः" (पा० २.४.५२) सूत्र है जिसमें 'अस्' धातु को स्थानी माना गया तथा 'भू' को उसके स्थान पर 'आदेश' माना गया। यह कल्पना 'अस्' के 'भविता' 'भवितुम्' इत्यादि रूपों की सिद्धि के लिये की गयी। परन्तु प्रापिशलि के व्याकरण में इसके विपरीत 'भू' को 'स्थानी' तथा 'अस्' को उसके स्थान पर 'आदेश' माना गया था यह कल्पना संभवतः 'पासीत्', प्रास्ताम् 'पासन्' आदि प्रयोगों की सिद्धि के लिये की गयी थी। परन्तु चाहे 'अस' को 'स्थानी' माना जाय अथवा 'भू' को 'स्थानी' माना जाय, प्रयोगों के अर्थ में कोई अन्तर नहीं पड़ता। . [प्राप्तों के द्वारा उपदिष्ट शब्द को भी प्रमाण कोटि में माना गया है] तत्र प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमारणानि (न्याय सूत्र १.१.३) इति गौतमसूत्रे । शब्दश्च प्राप्तोपदेशरूपः प्रमारणम् । 'प्राप्तो' नाम अनुभवेन वस्तुतत्त्वस्य कात्स्न्येन निश्चयवान् । रागादिवशाद् अपि नान्यथवादी यः सः इति चरके पतञ्जलिः । For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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