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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६ वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा "प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान तथा शब्द (ये) प्रमाण हैं” (न्यायसूत्र के प्रणेता गौतम ऋषि) के इस सूत्र में प्राप्तोपदेश रूप शब्द को प्रमाण (यथार्थज्ञान का बोधक) माना गया है। तथा 'प्राप्त' वह है "जिसे अपने अनुभव के अाधार पर, वस्तुतत्त्व का पूर्णरूपेण निश्चयात्मक ज्ञान हो । जो राग या द्वष आदि के कारण भी असत्य भाषण करने वाला न हो, वह प्राप्त है'' ऐसा चरक (शास्त्र) में पतञ्जलि ने कहा है। न्याय दर्शन के उपर्युक्त सूत्र में चार प्रमाण माने गये हैं, जिनसे मानव को अर्थज्ञान होता है। इन चारों में अन्तिम प्रमाण 'शब्द' है । शब्द की परिभाषा करते हुए न्याय दर्शन में कहा गया-प्राप्तोपदेशः शब्दः (न्याय सू० १.१.७) अर्थात् प्राप्त व्यक्ति के द्वारा उपदिष्ट या कथित शब्द ही वस्तुतः शब्द है। ऐसा शब्द ही प्रमाण-कोटि में आ सकता है। प्राप्तो नाम . . . . . 'निश्चयवान्--'प्राप्त' किसे माना जाय इस प्रश्न के उत्तर में प्राप्तोपदेशः शब्दः इस सूत्र की व्याख्या करते हुए, भाष्यकार वात्स्यायन ने कहा है-प्राप्तो नाम यथादृष्टस्य अर्थस्य चिख्यापयिषया प्रयुक्त उपदेष्टा । तस्य शब्दः । अर्थात् जिस वस्तु या तथ्य को जिस रूप में सुना या देखा जाय, उसे उसी रूप में प्रकट करने की अभिलाषा से प्रेरित व्यक्ति प्राप्त' है। प्राप्तो नाम अनुभवेन वस्तुतत्त्वस्य कात्स्न्ये न निश्चयवान् यह प्राप्त की परिभाषा अधिक उपयुक्त परिभाषा है । जिस व्यक्ति ने वस्तु आदि के स्वरूप का परिपूर्णता के साथ निश्चित ज्ञान प्राप्त कर लिया है-उसे उस विषय में किसी प्रकार का सन्देह नहीं है - वह व्यक्ति ही 'प्राप्त' माना जा सकता है। वस्तुत: वात्स्यायन तथा नागेश के ये दोनों कथन मिलकर प्राप्त की एक पूरी परिभाषा बनाते हैं। परन्तु सम्पूर्णता के साथ अर्थ के निश्चित ज्ञान की स्थिति भी सापेक्षिक ही माननी होगी अर्थात् अन्य व्यक्तियों की अपेक्षा जिसे अधिक ज्ञान हो, वह 'प्राप्त' है। अन्यथा, मानव का ज्ञान देश तथा काल की सीमाओं से परिच्छिन्न है-वह अल्पज्ञ हैइसलिये, कोई भी व्यक्ति 'प्राप्त' नहीं कहा जा सकता। रागाविवशा'.. पतञ्जलिः-'प्राप्त' की यह परिभाषा भी उसके एक विशिष्ट स्वरूप को प्रस्तुत करती है और वह यह है कि उसी व्यक्ति का कथन प्रामाणिक माना जायेगा, जो रागद्वेष आदि से सर्वथा ऊपर उठ कर, अथवा निष्पक्ष होकर, अपना वक्तव्य दे। इसी बात को वात्स्यायन ने यथादृष्टस्य अर्थस्य चिल्यापयिषया प्रयुक्तः कहकर स्पष्ट किया है, अर्थात् जिस वस्तु को जैसा देखा उसे उसी रूप में प्रगट करना--किसी प्रकार के राग, द्वेष में पड़कर पक्षपात-पूर्ण भाषण न करना-यह भी प्राप्त पुरुष की एक विशेषता है । नागेश ने यहां इति चरके पतञ्जलिः कहकर यह प्रगट किया कि 'चरक' में पतञ्जलि ने प्राप्त की यह परिभाषा दी है । वैयाकरण-सिद्धान्त-लधु- मञ्जूषा के 'तद्धितवृत्ति-निरुपण' में भी एक स्थल पर नागेश ने कहा है-चरके पतञ्जलिरप्याह (पृ० १५२३) तथा इसी प्रकार इसी पुस्तक में 'परमार्थसार' नामक ग्रन्थ को भी नागेश ने पतञ्जलि-विरचित माना है - परमार्थसारे पतञ्जलिराह (लम०, पृ० १५२४) । For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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