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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४ वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा की गयी है। इन कोशों में पूर्व पूर्व की अपेक्षा बाद बाद वाला कोश श्रेष्ठतर एव सूक्ष्मतर है । साधक की साधना अन्नमय कोश से प्रारम्भ होती है और प्रानन्दमय कोश पर उसकी निष्पत्ति होती है। आनन्दमय कोश की अनुभूति से साधक ब्रह्म-ज्ञानी हो जाता है। कोण्ड भटट ने अपने वैयाकरणभूषण में तथा श्रीकृष्ण ने अपनी स्फोट-चन्द्रिका में ब्रह्म के रूप में कल्पित इन पांच कोशों की विस्तृत तुलना पाँच प्रकार के कल्पित स्फोटों—'वर्ण-स्फोट,' 'पद-स्फोट', 'वाक्य-स्फोट', 'अखण्ड-पद-वाक्य-स्फोट' तथा 'जातिस्फोट'-से की है। इन विद्वानों के अनुसार इन स्फोटों में भी उत्तरोतर स्फोट श्रेष्ठतर एवं सूक्ष्मतर है। इस प्रकार 'वर्ण-स्फोट' की तुलना अन्नमय कोश से, पद-स्फोट' की प्राणमय कोश से, 'बाक्य-स्फोट' की मनोमय कोश से की गयी है। 'सखण्ड-वाक्य-स्फोट' की अपेक्षा 'अखण्ड-वाक्य-स्फोट' को सूक्ष्मतर एवं श्रेष्ठतर मानते हुए उसे विज्ञानमय कोश की समकक्षता में, तथा अन्तिम 'जाति-स्फोट' को 'अखण्ड-वाक्य-स्फोट' से भी सूक्ष्मतर एवं श्रेष्ठतर मानते हुए उसे आनन्दमय कोश की तुलना में प्रस्तुत किया गया है । इस रूप में, जाति-वाक्य-स्फोट को अन्तिम सोपान मानते हुए उसके ज्ञान से नित्य, अनादि-निधन, एवं अक्षर शब्द-ब्रह्म का अनुभव होता है तथा इस प्रकार का साक्षात् ज्ञान होता है कि यह सब ब्रह्माण्ड उसी सूक्ष्मातिसूक्ष्म शब्ब ब्रह्म का स्यूल शरीर अथवा रूप है । इम परम सूक्ष्म तत्त्व शब्द-ब्रह्म के अतिरिक्त भर्तृहरि अादि शब्दमनीषी वैयाकरण किसी भी अन्य तत्त्व को वास्तविक अथवा परमार्थ भूत तत्त्व नहीं मानते । तैत्तिरीयोपनिषद् के ऋषि ने भी प्रानन्दमय कोश से सिद्ध होने वाले ब्रह्म को ही एकमात्र पर ब्रह्म अथवा अन्तिम तत्त्व माना है। तो जिस प्रकार तैत्तिरीयोपनिषद् में वास्तविक ब्रह्म के ज्ञापन के लिये भृगु के पिता वारुणि ने भृगु को ब्रह्म का उपदेश करते हुए उपरिनिर्दिष्ट पाँच कोशों को, जो परमार्थतः ब्रह्म नहीं थे, ब्रह्म-ज्ञान के उपाय के रूप में उन्हें ब्रह्म बताते हुए उनका उपदेश किया, उसी प्रकार शब्दों का अनुशासन करते हुए पाणिनि ने अखण्ड-नित्य-स्फोट-रूप पद अथवा वाक्य की वाचकता के उपपादन एवं ज्ञापन के लिये उपाय के रूप में इन 'प्रकृति', 'प्रत्यय' आदि की तथा उनकी वाचकता की असत्य कल्पना का उपदेश किया या दूसरे शब्दों में 'वर्ण-स्फोट' आदि की कल्पना को स्वीकार किया। इसीलिये भर्तृहरि ने वाक्यपदीय में पूरे व्याकरण-शास्त्र को ही असत्य एवं उपाय मात्र तथा अविद्या घोषित किया है । द्रष्टव्य :--- शास्त्रेषु प्रक्रिया-भेदैर् अविद्य वोपवणर्यते । (वाप० २.२३३) उपायाः शिक्षमारणानां बालानाम् उपलालनाः । असत्ये वर्मनि स्थित्वा ततः सत्यं समीहते ॥ (वाप० २.२३८) उपाया अव्यवस्थिता:-उपाय (साधन मात्र) उपेय (साध्य) की प्राप्ति के लिये होता है इस कारण पात्र, स्थान, प्रसंग, विषय आदि की दृष्टि से अलग अलग उपायों की कल्पना की जा सकती है, यह आवश्यक नहीं है कि निश्चित रूप से एक ही उपाय अपनाया जाय। दूसरे शब्दों में उपाय अव्यवस्थित हैं, अनियत For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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