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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शक्ति-निरूपण १३ माना जाय--दोनों ही स्थितियों में वह वाचकता सत्य या वास्तविक न होकर कल्पित ही है। वास्तविक वाचकता तो 'पदस्फोट' को शब्द-तत्त्व मानने वाले विद्वानों के मत में पद में रहा करती है न कि उनके अवयवभूत 'स्थानी' या 'प्रादेश' में। तथा अन्य भर्तृहरि आदि मूर्धन्य वैयाकरणों की दृष्टि में, जो एकमात्र 'वाक्य-स्फोट' को ही सत्य मानते हैं और 'पदस्फोट' तथा 'वर्ण-स्फोट' दोनों को ही असत्य मानते हैं, केवल वाक्य में ही वाचकता शक्ति रहती है। पद अथवा पदों के अवयव 'स्थानी' या 'आदेश' आदि में तो कल्पित अथवा असत्य वाचकता ही मानी जा सकती है। वस्तुतः वैयाकरण विद्वानों के भी दो वर्ग हैं-एक 'पदस्फोट' को सत्य मानता है तो दूसरा केवल 'वाक्यस्फोट' को ही अर्थ का बोधक मानता है। इन दोनों मतों का निर्देश कयट तथा नागेश ने महाभाष्य के पस्पशाह्निक की टीका में बड़े स्पष्ट रूप से निम्न शब्दों में किया है :-अन्ये वर्ण-व्यतिरिक्त पद-स्फोटम इच्छन्ति । वाक्यस्फोटम् अपरे संगिरन्ते (प्रदीप)। 'अन्ये वैयाकरणः । 'अपरे'- त एव मुख्याः । पदे वर्णनाम् इव वाक्ये पदानां कल्पितत्वात् । तेषाम् अर्थवत्वम् अपि काल्पनिकम् -- इति वाक्यस्यैव शब्दत्वम् इति तद्-भावः (उद्योत, महा०, भाग १, पृ० ४६) । भट्टोजि दीक्षित ने भी-वाक्य-स्फोटोऽतिनिष्कर्षे तिष्ठतीति मत-स्थितिः (वैभूसा, पृ० ४५७ पर उद्धृत) इस कारिकांश में एकमात्र 'वाक्य-स्फोट' की सत्यता को ही प्रति-पादित किया है। [व्याकरण-भेद से 'स्थानी' प्रादि के भिन्न-भिन्न होने पर भी शब्द से अर्थ का बोध होने में कोई क्षति नहीं होती] "उपेयप्रतिपत्त्यर्था उपाया अव्यवस्थिताः" (वैभूसा० कारिका सं० ६८) इति न्यायेन व्याकरणभेदेन स्थानि भेदेऽपि न क्षतिः, देशभेदेन लिपिभेदवद् इति दिक् । 'ज्ञातव्य के ज्ञान के लिये उपाय अनिश्चित होते हैं" इस न्याय के अनुसार जिस प्रकार स्थान, देश आदि के भिन्न होने से लिपि के भिन्न होने पर भी अर्थ-प्रतिपादन में कोई क्षति नहीं होती उसी प्रकार, व्याकरण के भेद से 'स्थानी' के भिन्न होने पर भी (अर्थ-बोधन में) कोई क्षति नहीं होती। यहां नागेश ने जिस कारिका का उत्तरार्ध उद्ध त किया है वह पूरी कारिका निम्न रूप में है : "पंचकोशादिवत् तस्मात् कल्पनैषा समाश्रिता । उपेय-प्रतिपत्त्यर्था उपाया अव्यवस्थिताः ॥ (वभूसा०, का० सं० ६८) इस कारिका में तैत्तिरीयोपनिषद् की ब्रह्मानन्द वल्ली (अनुवाक २-५) में वरिणत पंचकोशों की ओर संकेत किया गया है। ये पांच कोश हैं:-अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय तथा आनन्दमय । इन कोशों की क्रमिक साधना से आत्मतत्त्व की सिद्धि होती है। यहां प्रत्येक कोश को, जो वस्तुतः ब्रह्म नहीं है, ब्रह्म कह कर उसकी व्याख्या For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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