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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सत्ताईस लम० के 'तिर्थनिरूपण' में जिन बातों पर विचार किया गया उनमें से कुछ पलम० के 'धात्वर्थ-निरूपण' में, कुछ 'दशलकारादेशार्थ' के प्रकरण में तथा कुछ 'लकारार्थनिर्णय' के प्रकरण में प्रस्तुत की गयी हैं । पलम० के एक संस्करण में 'दशलकारादेशार्थ' तथा 'लकारार्थनिरूपण' इन दोनों प्रकरणों को एक नाम देकर एक साथ सन्निविष्ट कर दिया गया है । परन्तु हस्तलेखों में तथा अन्य संस्करणों में दोनों को अलग अलग दो प्रकरण माना गया है। वस्तुत: इन दोनों प्रकरणों की पृष्ठभूमि में दो दृष्टिकोण हैं -भटोजि दीक्षित आदि वैयाकरण, 'लकारों' को अर्थ का वाचक न मान कर उन के अदेशभूत, 'तिप्' आदि को अर्थ का वाचक मानते हैं। इन की दृष्टि से 'दशलकारादेशार्थ' प्रकरण को स्थान दिया गया है । इसके विपरीत नैयायिक 'लकारों' को ही अर्थ का वाचक मानते हैं। इसलिये उनकी दृष्टि से 'लकारार्थनिरूपरण' नामक प्रकरण की अवतारणा की गयी । लम० में इन दोनों प्रकरणों का नाम नहीं मिलता। 'लकारों के आदेशभूत 'तिङ्' को वाचक मानते हुए, केवल उन्हीं के अर्थों पर विचार करने की दृष्टि से, ' तिर्थ-निरूपण' नामक प्रकरण ही वहाँ दिखायी देता है। परन्तु पलम० के अतिसंक्षिप्त आयाम को देखते हुए नैयायिकों की दृष्टि से 'लकारार्थ-निरूपण' का पूरा प्रकरण सर्वथा अनावश्यक प्रतीत होता है। लम० में ' तिर्थनिरूपण' के पश्चात् ‘सनाद्यर्थनिरूपण' तथा 'कृदर्थनिरूपण' नामक दो ऐसे प्रकरण हैं जो पलम० में नहीं मिलते। इसके बाद लम० में 'प्रातिपदिकार्थनिर्णय' तथा 'सुबर्थनिर्णय' का प्रकरण है। पलम० में 'लकारार्थनिरूपण' के पश्चात् 'कारकार्थनिरूपण' का प्रकरण है, जिसे लम० में 'सुबर्थनिर्णय' के नाम से प्रस्तुत किया गया है और उसके बाद 'नामार्थ-निरूपण' का प्रकरण है जिसे लम० में 'प्रातिपादिकार्थ-निर्णय' के नाम से, 'सुबर्थनिर्णय' नामक प्रकरण से पहले ही, रखा गया है। लम० के 'सुबर्थनिर्णय' में सभी कारकों के विषय में विचार किया गया है। पलम० के 'कारकनिरूपणम्' में भी उन्हीं को संक्षेप में उपस्थित किया गया है। परन्तु पलम० के इस प्रकरण को लम० के 'सुबर्थनिर्णय' का संक्षेपमात्र नहीं कहा जा सकता। दोनों ग्रन्थों के इस प्रकरण में प्रतिपाद्य विषय के क्रम, विवेचन-पद्धति, आदि में पर्याप्त भिन्नता है। पलम० में प्रतिपादित अथवा वणित विषय लम० में उपलब्ध हों ही यह भी आवश्यक नहीं है । जैसे- 'कर्म' कारक की पलम० में प्रदर्शित नैयायिक सम्मत, तीन परिभाषाओं में से केवल एक का ही उल्लेख लम० में मिलता है। पलम० में 'सम्प्रदान' कारक के प्रसंग में, काशिका वृत्ति के मत का स्पष्ट खण्डन किया गया जो लम० में नहीं मिलता । इसी प्रकार “दानादीनां तदर्थत्वात् “हेलाराजः" यह पूरा अंश, जिसमें 'सम्प्रदान' कारक का विधान करने वाले प्रमुख सूत्र के विषय में एक महत्त्वपूर्ण शंका तथा उसके समाधान के रूप में वाक्यपदीय के टीकाकार हेलाराज का मत उद्धृत किया गया, लम० में सर्वथा ही नहीं है । पलम० में उद्धृत यह अंश लम० की कला टीका (पृ० १२६५) में कथंचित् विद्यमान है। १. द्र०कालिकाप्रसाद शुक्ल सम्पादित पलम० का संस्करण । For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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