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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अठाईस पलम० में कारकों के विषय में विचार करने से पूर्व उनकी सुनिश्चित परिभाषा दी गई है तथा उस परिभाषा की व्याख्या करते हुए उनका विवेचन किया गया है। कारकों की ये परिभाषायें लम० के उन उन प्रकरणों में उसी रूप में कहीं भी नहीं दिखायी देतीं। यदि कहीं कोई परिभाषा मिलती भी है तो उसमें बहुत कुछ भिन्नता दिखायी देती है। इसी तरह पलम० के इस प्रकरण के आरम्भ में ही कारकत्व के विषय में विविध परिभाषाओं का विवेचन किया गया है। पर लम० के इस प्रकरण में बीच बीच में इतस्तत: विकीर्ण रूप में कारकत्व का स्वरूप और परिभाषा आदि विषयक विचार मिलता है। पलम० (पृ० ३७३-७४) में षष्ठी विभक्ति के विषय में जो विचार, "कारकप्रातिपदिकार्थ सम्बन्धाश्रयः' इन पंक्तियों में, मिलता है वह भी लम० में नहीं है। अतः यह कहा जा सकता है कि पलम० का यह पूरा प्रकरण, लम० के इस प्रकरण की अपेक्षा, अधिक सुव्यवस्थित एवं सुसंगत है । यहां यह भी द्रष्टव्य है कि लम० तथा पलम० के इस प्रकरण में कहीं कहीं परस्पर विरोधी कथन भी उपलब्ध हैं। जैसे- 'अधिकरण' कारक के प्रकरण में लम० में 'प्रौपश्लेषिक' अधिकरण का उदाहरण 'कटे प्रास्ते' तथा 'वैषयिक' अधिकरण का उदाहरण 'खे शकुनय: सन्ति' दिया गया है (द्र० --पृ० १३२७)। परन्तु पलम० (पृ० ३६८) में, कैयट के मत के रूप में 'कटे प्रास्ते' को 'प्रौपश्लेषिक' अधिकरण का उदाहरण प्रस्तुत करके, उसका खण्डन किया गया है तथा 'वैषयिक' अधिकरण के उदाहरण के रूप में 'कटे प्रास्ते' तथा 'जले सन्ति मत्स्याः ' को ही ठीक माना गया है। पलम० के अन्तिम दो प्रकरण, 'नामार्थ' तथा 'समासादिवृत्त्यर्थ' भी लम० के संक्षेप नहीं माने जा सकते । पलम० के 'नामार्थ' प्रकरण में प्रातिपदिक शब्दों के पाँच अर्थों-जाति, व्यक्ति, लिंग, संख्या तथा कारक के विषय में विचार किया गया है तथा अन्त में, शब्द का अपना रूप भी शब्दार्थ में ग्राह्य बनता है और अनुकार्य तथा अनुकरण में भेद तथा अभेद दोनों स्थितियाँ मानी जाती हैं, इन सिद्धान्तों का प्रतिपादन करते हुए प्रकरण को समाप्त किया गया है । यद्यपि लम० में भी इन बातों की ही चर्चा की गयी है पर दोनों की भाषा में कोई साम्य नहीं दिखायी देता । साथ ही पलम० (पृ० ८००) में इस प्रकरण के अन्त का "अपदम् इत्यस्य । परिनिष्ठतसाधुशब्दौ पर्यायो" अंश लम० में सर्वथा अप्राप्य है तथा पलम० के कलेवर की दृष्टि से अनावश्यक भी प्रतीत होता है । ___ इसी प्रकार पलम० का 'समासादिवृत्त्यर्थ' प्रकरण लम० के 'वृत्ति-विचार' वाले प्रकरण से सर्वथा भिन्न है । पलम० के इस प्रकरण में वृत्तित्वसामान्य के विचार-प्रसंग में नैयायिका भिमत 'व्यपेक्षा' पक्ष में दोष दिखाते हुए, वैयाकरणों के 'एकार्थीभाव' पक्ष को निर्दोष प्रतिपादित किया गया है। यहीं 'जहत्स्वार्था' तथा 'अजहत्स्वार्था' को क्रमशः ‘एकार्थीभाव' तथा 'व्यपेक्षा' सामर्थ्य के रूप में प्रस्तुत किया गया है जबकि लघुमञ्जूषा में इस बात का खण्डन मिलता है (द्र० पृ०१४०६-१०)। दूसरी ओर वैसिलम० के 'वृत्तिविचार' नामक प्रकरण में वृत्ति के सभी पाँच प्रकारों-समास, एकशेष, क्यजाद्यन्त, तद्धित, वीप्सा -- की विस्तृत विवेचना की गई है जो पलम० में अनुपलब्ध है। यह एक बड़ी विचित्र बात है कि पलम० के ये दोनों ही प्रकरण जहां वैसिलम० के सम्बद्ध प्रकरणों से सर्वथा भिन्न रूप वाले हैं वहीं कौण्ड भट्ट-कृत वैभूसा० के For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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