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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छब्बीस सकता--'तात्पर्य' को मानना भी आवश्यक है। लम० की स्थिति इस विषय में सर्वथा भिन्न है । वहाँ 'तात्पर्य' को शाब्दबोध में हेतु माना ही नहीं गया । द्र०-"तन्न शुकादि - तस्य बोधे हेतुत्वासम्भवात्" । यहाँ प्राश्चर्य की बात तो यह है कि “प्रास्माच्छब्दादर्थद्वय संगच्छते" पलम० की इन पंक्तियों से सर्वथा मिलती जुलती पंक्तियाँ ही लम० में भी हैं पर उनमें वहाँ 'तात्पर्या' वृत्ति का खण्डन किया गया है । लम० के इस प्रसंग में यह स्पष्ट लिखा है- "सर्वजनानुभवविरोधान्न तस्य हेतुत्वम्” (पृ० ५२५) । पलम० के इस अंश में संभवत: जानबूझ कर यह वाक्य छोड़ दिया गया है । 'धात्वर्थ-निर्णय' के प्रकरण में पलम० में 'व्यापारत्व' की परिष्कृत परिभाषा दी गयी है जो लम० सर्वथा अनुपलब्ध है। पलम० का यह सारा प्रकरण लम० के प्रकरण की अपेक्षा अधिक सुसंगत एवं परिष्कृत प्रतीत होता है भले ही वह अन्य दृष्टियों से संक्षिप्त क्यों न हो। अनेक स्थलों में लम० का पाठ कुछ असम्बद्ध दिखायी देता है जबकि पलम० का पाठ अपेक्षाकृत अधिक सुसंगत है। लम० के इस प्रकरण के प्रारम्भ में ही मीमांसकों का नाम लिये बिना ही उनके मत 'फलं धात्वर्थः' का खण्डन प्रारम्भ कर दिया गया है । पलम० में यह खण्डन बाद में मिलता है तथा वहाँ मीमांसकों का स्पष्टतः नाम निर्देश करके उनका खण्डन किया गया है। द्र०-"यत्तु मीमांसकाः फलं धात्वर्थो व्यापारः प्रत्ययार्थ इति वदन्ति तन्न" । 'निपातार्थ-निरूपण' के प्रकरण में पलम० में 'न' निपात के अर्थ के विषय में जो विचार मिलता है वह लम० के विचार की अपेक्षा अधिक सुव्यवस्थित है। पलम० में यहाँ प्रसज्य प्रतिषेध तथा पर्युदास प्रतिषेध की दृष्टि से दो प्रकार के 'न' का निर्देश करते हुए पहले 'पर्युदास नञ्' के अर्थ का विवेचन किया गया और फिर 'प्रसज्य नञ्' के विषय में विचार किया गया । लम० में ऐसी स्पष्ट स्थिति नहीं दिखायी देती--यहां पर्युदास तथा प्रसज्य का नाम ही नहीं लिया गया। प्रारम्भ में ही 'घटो नास्ति' इस उदाहरण के साथ प्रसज्य प्रतिषेध की बात कही गयी तथा इस दृष्टि से 'नञ्' निपात की वाचकता स्वीकार की गयी। यहीं 'नानुयाजेषु' इस पर्युदास के प्रयोग को प्रस्तुत करके उसकी दृष्टि से 'न' को अर्थ का द्योतक माना गया। फिर कुछ आगे चल कर "असमस्ते तु अभावो नअर्थः' (पृ०६५२) इत्यादि प्रसज्य के उदाहरणों पर विचार किया गया। इसी प्रकार 'एव' निपात के अर्थ-विचार के प्रसंग में पलम० में तीन प्रकार के अवधारण (नियम) की बात, बड़े स्पष्ट तथा सुगम रूप में, समझायी गयी है पर लम० (पृ० ७०६-७०८) में अवधारण की विविधता स्पष्ट रूप में कहीं भी नहीं प्रकट की गयी। इस प्रकरण के कुछ उदाहरण, यथा- 'शः पाण्डुर एव' तथा 'नीलं सरोज भवत्येव, अवश्य दोनों में ही मिलते हैं परन्तु दोनों ग्रन्थों का प्रतिपादन सर्वथा भिन्न रूपों में हुआ है। पलम० का “सर्वं वाक्यं सावधारणम् ...... वृद्धोक्तं सङ्गच्छते" आदि अंश लम० में नहीं मिलते । १. द्र०--लम० पू० ५८३. अतएव 'स्थालीस्थे यत्ने कथ्यमाने' इति “कारके” इति सूत्रे भाष्ये प्रयुक्तम् । तुलना करो-पलम० पृ० १५८, अतएव स्थालीस्थे यत्ने पचिना कथ्यमाने 'स्थाली पचति' इति 'कारके' इति सूत्रे भाष्य उक्त्तम् । For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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