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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नामार्थ ३८६ इन 'टाप' आदि प्रत्ययों को 'लिङ्ग' का वाचक माना जाय तो) 'वाक्', 'उपानत्' आदि शब्दों से ('टाप्' आदि प्रत्ययों के अभाव में) 'इयं तव वाक्' (यह तुम्हारी वाणी है) इस तरह का 'स्त्रीलिङ्गता' की बोध नहीं हो सकता। 'अयम्' इस (शब्द) के व्यवहार का विषय बनना 'पुल्लिगता' है। 'इयम्' इस (शब्द) के व्यवहार का विषय बनना 'स्त्रीलिङ्गता' है तथा 'इदम्' इस (शब्द) के व्यवहार का विषय होना 'नपुसकलिंगता' है। इस रूप में (व्याकरण) शास्त्र में स्वीकृत पुस्त्व, स्त्रीत्व तथा नपुसकत्व (लोक में प्रसिद्ध पुस्त्व, स्त्रीत्व तथा नपुसकत्व से) विलक्षण हैं। इसीलिये, 'खट्वा' आदि शब्दों के वाच्य अर्थ का स्तन, केश आदि से युक्त होना रूप लौकिक स्त्रीत्व के अभाव में भी, इन शब्दों से 'टाप्' आदि प्रत्यय होते हैं । ___'प्रातिपदिक' शब्द 'जाति' के वाचक हैं या 'व्यक्ति' के वाचक हैं अथवा 'जाति'विशिष्ट व्यक्ति' के वाचक हैं इस बात की विवेचना करने के पश्चात् यहां यह कहा गया है कि 'लिंग' भी इन 'प्रातिपदिक' शब्दों का ही वाच्य अर्थ है । 'टाप्' आदि प्रत्यय तो केवल इस बात का द्योतनमात्र करते हैं कि यह शब्द 'स्त्रीलिंगता' का वाचक है। इसीलिये 'वाक', 'उपानत्' इत्यादि शब्दों से भी, जिनमें कोई भी 'स्त्री-प्रत्यय' नहीं है--'स्त्रीलिंगता' का ज्ञान होता है । यदि 'स्त्री-प्रत्ययों' को ही 'स्त्रीलिंगता' का वाचक माना जाये तो इन शब्दों के प्रयोग में 'स्त्रीलिंगता' की प्रतीति नहीं होनी चाहिये। इसके अतिरिक्त पाणिनि के अनेक सूत्रों से यह ध्वनि निकलती है कि वे 'प्रातिपदिक' शब्दों को ही 'लिंग' का भी वाचक मानते हैं। जैसे- "स्वमोर् नपुसकात्" (पा० ७.१.२३) सूत्र में 'नपुसकात्' पद का अर्थ है "नपु सक' अर्थ के वाचक शब्द से" तथा "हस्वो नपंसके प्रातिपदिकस्य" (पा० १.२.४७) सूत्र का अर्थ है " नसक' अर्थ के वाचक 'प्रातिपदिक' शब्द का"। द्र० -- "अर्थधर्मत्वाल् लिङ गस्य नपुंसकार्थाभिधायित्वाद् अस्थ्यादयो नपं सक-शब्देन अभिधीयन्ते' (महा० प्रदीप टीका ७.१.२६)। इसी प्रकार "रात्राहाहा: पुसि च" (पा० २.४.२६), "नपुसकस्य झलचः” (पा० ७.१.७२), "प्राङो ना स्त्रियाम्" (पा० ७.३.१२०), "तस्माच् छसो नः पुसि" (पा० ६.१.१०१) जैसे सूत्रों से भी इसी बात की पुष्टि होती है क्योंकि इनमें 'पुसि', 'स्त्रियाम्' तथा 'नपुसकस्य' पदों का यही अर्थ है कि 'पुलिंग' के वाचक, 'स्त्रीलिंग' के वाचक, तथा 'नपुसक लिंग' के वाचक प्रकृतिभूत 'प्रातिपदिक' शब्द। यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि जितने भी 'स्त्री-प्रत्यय' का विधान करने वाले सूत्र हैं उनमें 'अधिकार' के रूप में पाणिनि का "स्त्रियाम्” (पा० ४.१.२) सूत्र उपस्थित होता है। जिसके कारण उन सूत्रों का अर्थ हो जाता है "स्त्रीलिंग में वर्तमान अथवा 'स्त्रीलिंगता' के वाचक --उन उन 'प्रातिपदिक' शब्दों से वे वे स्त्री प्रत्यय होते हैं" । "प्रातिपदिकार्थ-लिङ्ग-परिमाण-वचनमात्रे प्रथमा' (पा० २.३.४६) सूत्र के 'लिंगमात्रे प्रथमा' अंश का भी यही अर्थ करना चाहिये कि "लिंग' के वाचक 'के रूप में विद्यमान जो शब्द उससे 'प्रथमा' विभक्त होती है", अर्थात् 'प्रातिपदिकार्थ में ही 'लिंग' अर्थ का भी समावेश मानना चाहिये। अन्यथा यदि 'प्रथमा' विभक्ति का अर्थ 'लिङ्ग' माना गया तो इस बात का उत्तर देना होगा कि 'घटेन' इत्यादि अन्य विभक्तियों से युक्त प्रयोगों में 'पुलिंगता' की प्रतीति क्यों होती है ? अतः यह स्पष्ट है कि 'प्रातिपदिक' शब्द के वाच्य अर्थ में 'लिंगता' भी समाविष्ट है । For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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