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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ३८८ वैयाकरण- सिद्धान्त-परम- लघु-मंजूषा पड़ती है । यह दूसरी बात है कि 'जाति-शक्ति-वाद' के सिद्धान्त में 'जाति' 'विशेष्य' थवा प्रधान होती है तथा 'व्यक्ति' गौण । इसी प्रकार 'व्यक्ति - शक्ति - वाद' के सिद्धान्त में 'व्यक्ति' 'विशेष्य' (प्रधान) तथा 'जाति' गौरण रहती है । दोनों सिद्धान्तों में 'जाति तथा 'व्यक्ति' दोनों की अनिवार्य सत्ता मानने का कारण यह है कि 'व्यक्ति' बिना 'जाति' के रह ही नहीं सकती, तथा 'जाति' भी बिना व्यक्ति के नहीं रह सकती । 'जाति' 'व्यक्ति' में 'समवाय' सम्बन्ध से रहती है क्योंकि 'जाति' का ग्राश्रय अथवा आधार ही 'व्यक्ति' है । इसलिये जब यह कहा जाता है कि 'ब्राह्मणो न हन्तव्यः' (ब्राह्मण नहीं मारा जाना चाहिये) तो यहाँ 'जाति' रूप एकता का ज्ञान स्वतः होता है, परन्तु ब्राह्मण रूप अर्थ का 'हनन' क्रिया में अन्वय 'व्यक्ति' के ज्ञान के द्वारा ही सम्भव है । इसी प्रकार 'व्यक्ति'प्रधानता के सिद्धान्त में कभी कभी 'आकृति' की एकता के आधार पर एक वचन का प्रयोग होता ही है । जैसे - 'गौर्न हन्तव्या ' (गाय नहीं मारी जानी चाहिये) इत्यादि प्रयोग । यहाँ पतंजलि का पूरा वक्तव्य नीचे उद्धृत है :-' - "नह्याकृति-पदार्थकस्य द्रव्यं न पदार्थः द्रव्य-पदार्थकस्य वा प्राकृतिर्न न पदार्थ: । उभयोर् उभयं पदार्थः । कस्यचित्तु किंचित् प्रधानभूतं किचिद् गुणभूतम् । प्राकृति-पदार्थकस्य प्राकृतिः प्रधानभूता द्रव्यं गुणभूतम् । द्रव्य-पदार्थकस्य द्रव्यं प्रधानभूतं प्राकृतिर् गुणभूता" ( महा० १.२.६४ ) । इस प्रकार के विविध वादों का भर्तृहरि ने निम्न कारिका में बड़े सुन्दर ढंग से समन्वय किया है : www.kobatirth.org भिन्नं दर्शनम् श्राश्रित्य व्यवहारोऽनुगम्यते । तत्र यन्मुख्यम् एकेषां तत्रान्येषां विपर्ययः ॥ १. २. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ 'प्रातिपदिक' अथवा 'नाम' शब्दों का अर्थ, 'जाति' तथा 'व्यक्ति' के साथ साथ 'लिङ्ग' भी है ] ह० – ते । ह०, वंमि० - केशभगादि । ( वाप० १.७४) लिङ्गम् अपि नामार्थः । प्रत्ययानां द्योतकत्वात् । अन्यथा 'वाग्', 'उपानद्' प्रादि-शब्देभ्य ' इयं तव' वाग्' इति स्त्रीत्व - बोधानापत्तेः । 'ग्रयम्' इति व्यवहार - विषयत्वं पुंस्त्वम् | 'इयम्' इति व्यवहार- विपयत्वं स्त्रीत्वम् । 'इदम् ' इति व्यवहार विषयत्वं क्लीबत्वम् इति विलक्षणं शास्त्रीयं स्त्रीपुन्नपुंसकत्वम् । अत एव खट्वादिशब्द वाच्यस्य स्तन - केशादिमत्त्वरूप-लौकिक-स्त्रीत्वाभावेऽपि तद्-वाचकात् 'टाप्' आदि-प्रत्ययः । 'लिङ्ग' भी 'नाम' ('प्रातिपदिक') शब्दों का अर्थ है क्योंकि ('टा' आदि) प्रत्यय ( 'लिङ्ग' के) द्योतक होते हैं (वाचक नहीं) । अन्यथा (यदि For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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