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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३६० वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा _ 'रमा' आदि स्त्री प्रत्ययान्त शब्दों में भी 'टाप' आदि स्त्री-प्रत्ययों को 'स्त्रीलिंगता' का द्योतक ही मानना चाहिये । इन प्रत्ययों में 'स्त्रीलिंगत्व' की वाचकता की प्रतीति तो केवल इस कारण होती है कि "प्रकृत्यर्थ-प्रत्ययार्थयोः प्रत्ययार्थस्यैव प्राधान्यम्" इस परिभाषा के अनुसार यहां प्रत्यय से द्योत्य अर्थ की प्रधानता मानी जाती है । विलक्षणं शास्त्रीय स्त्रीपुन्नपुंसकत्वम् :-'स्त्रियाम्' (पा० ४.१.२) सूत्र के भाष्य में लौकिक 'स्त्रीत्व', 'पुस्त्व' तथा 'नपुसकत्व' की पहचान के रूप में निम्न श्लोक उद्धृत है : स्तनकेशवती स्त्री स्यात् लोमशः पुरुषः स्मृतः। उभयोर् अन्तरं यच्च तदभावे नपुंसकम् ॥ स्तन तथा केश से युक्त स्त्री, लोम से युक्त पुरुष तथा जिसमें दोनों चिन्हों का अभाव हो और साथ ही स्त्री पुरुष दोनों की सदृशता हो वह नपुंसक है। परन्तु यह लौकिक पहचान शब्दों में भला कैसे मिल सकती है। खट्वा तथा वृक्ष प्रादि शब्दों में उपर्युक्त 'स्त्रीत्व' तथा 'पुस्त्व' कहाँ है ? इसी लिये "स्वमोर् नपुसकात्" (पा० ७.१.२३) सूत्र के भाष्य में पतंजलि ने कहा- "न हि नपुसकं नाम शब्दोऽस्ति" । इसी कारण व्याकरण में लौकिक 'लिंग' का आश्रयण नहीं किया जाता। द्र०-"तस्मान् न वैयाकरणः शक्यं लौकिकं लिंगम् आस्थातुम्" (महा० ४.१.२ पृ० २५) वस्तुतः वक्ता की विवक्षा के अनुसार जब शब्द उन उन 'लिंगों' के बोधक के रूप स्थिर एवं निश्चित हो जाते हैं तो उन्हें वैयाकरण भी उन्हीं उन्हीं लिंगों वाला मान लेता है। इसीलिये आचार्य कात्यायन ने कहा-"लिंगम् अशिष्यं लोकाश्रयत्वात् लिंगस्य" (महा० ४. १. २)। भाष्यकार पतंजलि ने भी इसी दृष्टि से कहा-"संस्त्यान-विवक्षायां स्त्री, प्रसवविवक्षायां पुमान्, उभयोर् अविवक्षायां नपुंसकम्” (महा० ४.१.२, पृष्ठ २६), अर्थात् रूप, रस, आदि अथवा सत्त्व, रज, तम आदि गुणों के तिरोभाव की विवक्षा में 'स्त्री', आविर्भाव की विवक्षा में 'पुरुष'; अथवा प्राधिक्य की विवक्षा में 'पुस्त्व' तथा अपचय की विवक्षा में 'स्त्रीत्व' और दोनों के अभाव की विवक्षा में 'नपुंसक' लिंग का प्रयोग किया जाता है। इस तरह 'लिंग'-प्रयोग, विवक्षा के आधीन होता है । इसलिये, एक ही पदार्थ के लिये 'अयं पदार्थः' 'इयं व्यक्तिः ' तथा 'इदं वस्तु' इस रूप में तथा 'तट' आदि अनेक शब्दों का 'तटः', 'तटी', 'तटम्' इत्यादि के रूप में तीनों लिंगों का व्यवहार होता है । इस प्रसंग में 'विवक्षा' के अभिप्राय को स्पष्टतः समझने के लिये भर्तृहरि की निम्न कारिका द्रष्टव्य है : भावतत्त्वदृशः शिष्टाः शब्दार्थेषु व्यवस्थिताः। यद्यद् धर्मेऽङ्गतामेति लिङ्गं तत्तत् प्रचक्षते ॥ (वाप० ३. १३. २७) भावों (पदार्थो) के तत्त्व को जानने वाले शिष्ट (प्राप्त) जन ही शब्द, अर्थ आदि के निश्चय करने में प्रमाण हैं। उनकी दृष्टि में शब्दों के प्रयोग में जो जो लिंग धर्म में निमित्त For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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