SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 361
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ३०० www.kobatirth.org वैयाकरण - सिद्धान्त-परम- लघु-मंजूषा 'कारण' है । इस प्रथम बोध में इतना स्पष्ट होता है कि स्वर्गाभिलाषी व्यक्ति याग के द्वारा 'अपूर्व' ( कार्य ) को प्राप्त करे । इस तरह इस प्रथम बोध में 'अपूर्व' की उपस्थिति करायी गयी क्योंकि इस अतीन्द्रिय 'अपूर्व' का ज्ञान किसी और तरह तो हो ही नहीं सकता । सनियोज्यकं द्वितीयः - द्वितीय बोध में इतना और पता लगा कि वह 'अपूर्व' ( 'कार्य') नियोज्य', (स्वर्गेच्छुक व्यक्ति ) के साथ सदा रहने वाला है, याग के समान क्षणिक नहीं है, अपितु स्थायी है । इसलिये वह 'अपूर्व' स्वर्ग का साधन हैं । इस प्रकार 'अपूर्व' में दीर्घ काल-स्थायिता तथा इस कारण स्वर्गसाधनता का प्रतिपादन इस द्वितीय-बोध में कराया गया । और इस स्थायी एवं स्वर्ग के साघनभूत 'अपूर्व' का कारण या साधन याग है, इसलिये परम्परया याग स्वर्ग का साधन है— इस बात का भी प्रतिपादन इसी द्वितीय अर्थ में हो जाता है । ... Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्वर्ग - काम तृतीय: इस रूप में परम्परया याग की स्वर्ग-साधनता के सिद्ध हो जाने पर 'यजन करना स्वर्गाभिलाषी का कर्तव्य हैं' इस बात का भी बोध इसी वाक्य से होता है । इसी को यहां तृतीय अर्थ माना गया । यहाँ आकर याग मे 'कार्यता' की उपपत्ति होती है, अर्थात् स्वर्गाभिलाषी व्यक्ति को याग क्यों करना चाहिये इसका उत्तर यहाँ मिलता है, और वह यह है कि याग से एक 'अपूर्व' की उत्पत्ति होती है जो स्वर्ग का साक्षात् साधन है, अतः परम्परया याग भी स्वर्ग का साधन है। इस प्रकार'याग स्वर्ग का साधन है' इस इष्ट साधनता-ज्ञान से स्वर्गेच्छुक व्यक्ति में याग करने की भावना उत्पन्न होती है । इसलिए प्रवृत्ति में हेतु होने के कारण इस तृतीय अर्थ को ही मुख्य शाब्दबोध माना गया । स्वर्ग- कामो यागकर्ता इति चतुर्थ : - 'स्वर्गाभिलाषी व्यक्ति याग का 'कर्ता' है' इस चतुर्थ अर्थ की कल्पना तो इसलिये की गयी कि उसके द्वारा 'कार्य' ('अपूर्व') के लिये जो याग आदि प्रयत्न किये जाने हैं उनके ग्राश्रय का बोध कराया जा सके । 'कार्य' 'कृति' - साध्य है इसलिये 'कार्य' के साथ ही 'कृति' भी उपस्थित होगी । उस 'कृति' का ग्राश्रय स्वर्गाभिलाषी व्यक्ति है - केवल इतना बताना ही इस चतुर्थ बोध में अभिप्रेत है । ग्रहं पंचमः - इन चारों बोवों का उपसंहार अथवा निष्कर्ष पाँचवें बोध में प्रस्तुत किया गया - " मैं स्वर्गाभिलाषी हूँ अतः याग मेरी कृति से साध्य है" । [ केवल एक प्रकार के अर्थ की कल्पना से काम नहीं चल सकता ] न च प्रथम एव स्वर्ग-काम-कार्यो याग इति बोधोऽस्तु । तथा च ' कार्यत्वे' एव शक्तिर्न 'कार्ये' इति वाच्यम् । For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy