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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लकारार्थ-निर्णय २६६ ज्ञान' को सर्वत्र प्रवृत्ति का कारण मानना चाहिये। इस दृष्टि से प्रकरणपचिका की निम्न कारिकायें भी द्रष्टव्य है :-- प्रास्तां तावत् क्रिया लोके गमनागमनक्रिया । अन्ततः स्तन्यपानादिस्तृप्तिकारिग यपि क्रिया ।। सा यावन् मम कार्येयम् इति नैवावधार्यते । तावत् कदापि मे तत्र प्रवृत्तिरभवन नहि ॥ कार्यमेव हि सर्वत्र प्रवृत्तावेककारणम् । प्रवृत्त्यभिचारित्वाल लिङाद्यर्थोऽवधार्यते ॥ (कारिका सं० २५८, २५६,२६५) अर्थात् गमन, प्रागमन तथा स्तन्यपान आदि जितनी भी क्रियायें हैं उनमें जब तक यह निचित नहीं हो जाता कि यह कार्य मेरा है, तब तक किसी भी क्रिया में प्रवृत्ति नहीं होती। इसलिये सर्वत्र प्रवृत्ति में 'कार्य' (कर्तव्य-बुद्धि) ही हेतु है। अतः वही 'लिङ् आदि का अर्थ ('विधि') है। नैयायिक 'इष्ट-साधनता, 'कृतिसाध्यता तथा 'बलवद्-अनिष्टाननुबन्धित्व' इन तीनों को प्रवृत्ति का कारण मानता है । परन्तु इन तीनों को कारण मानने की अपेक्षा एक 'कार्य' (कार्यता-ज्ञान) को प्रवृत्ति का कारण मानने में लाघव है। इसलिये लौकिक प्रयोगों की दृष्टि से यह कार्य (कार्यता-ज्ञान) ही 'विधि' का अर्थ है। यहाँ 'अपूर्व' जैसे किसी अदृष्ट धर्म को 'विधि' का अर्थ मानने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि 'तृप्ति-कामः पचेत' (भोजन-तृप्ति का अभिलाषी खाना पकावे) जैसे लौकिक प्रयोगों में पाक आदि तृप्ति रूप फल के साधन हैं,--अर्थात् तृप्ति-रूप फल के उत्पादन की योग्यता पाक में है- इस बात का ज्ञान लौकिक-प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों द्वारा ही हो जाता है। इसलिये यहां तो कार्यता-ज्ञान से हो काम चल जाता है, 'कार्य' (अपूर्व) की कल्पना नहीं करनी पड़ती। परन्तु वैदिक प्रयोगों ('स्वर्गकामः यजेत' इत्यादि) में याग स्वर्ग का साधन है, याग में स्वर्गोत्पादन की योग्यता है, इस बात का ज्ञान किसी तरह भी व्यक्ति को नहीं हो पाता। इसके विपरीत यह आशंका भले ही होती है कि क्षणिक याग दीर्घकाल-स्थायी स्वर्ग का साधन कैसे हो सकता है। इसलिये यहां 'कार्य' का अर्थ 'अपूर्व' या 'अदृष्ट' करने की आवश्यकता है। ____ इस तरह वैदिक वाक्यों की दृष्टि से इन्द्रियातीत 'अपूर्व' अथवा 'कार्य' को 'विधि' का अर्थ मानते हुए उसकी उपपत्ति के लिये इन मीमांसकों ने 'स्वर्गकामो यजेत' जैसे वैदिक वाक्यों में क्रमशः उपस्थित होने वाले पांच अर्थों की कल्पना की। __ स्वर्ग-कामो 'प्राथमिको बोध:-प्रथम अर्थ में यह ज्ञान होता है कि 'यजेत' पद में जो 'लिङ्' लकार का प्रयोग किया गया उसका अर्थ है एक ऐसे 'अपूर्व' को अपनी 'कृति' द्वारा प्राप्त करना जिसमें स्वर्गाभिलाषी व्यक्ति 'नियोज्य' है तथा याग 'विषय' अर्थात् For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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