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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लकारार्थ-निर्णय ३०१ यागादि-क्रियायां नियोज्यान्वयं विना कार्यत्वान्वयानुपपत्त: । नियोज्यत्वं हि क्रिया-निष्ठ-काम्य-साधनताज्ञानाधीनं२ मत्कार्यम् इति बोधवत्त्वम् । तच्च स्वर्गकामना-विशिष्टे योग्यतावच्छेदकतया भासते। 'घटेन जलम् प्राहर' इत्यत्र घटे छिद्रेतरत्ववत् । प्रथम (वोध) में ही--'स्वर्गाभिलाषी (व्यक्ति) के द्वारा याग किया जाना चाहिये' यह ज्ञान होता है और इस प्रकार ('लिङ' की) शक्ति ‘कार्यता' ('कर्तव्यता' अर्थात् ‘किया जाना चाहिये' इस अर्थ) में है 'कार्य' ('अपूर्व') में नहीं-यह कहना उचित नहीं है। क्योंकि याग ग्रादि क्रिया में नियोज्य' ('यह कार्य मेरे इष्ट का साधन है' इस ज्ञान से उत्पन्न कर्तव्यताबुद्धि-वाले व्यक्ति) का सम्बन्ध हुए बिना कर्तव्यता का सम्बन्ध उसमें सुसङ्गत नहीं होता। 'नियोज्यता (का अभिप्राय) है क्रिया में स्थित जो अभीष्ट का साधन बनना रूप धर्म उसके ज्ञान से उत्पन्न 'यह मेरा कर्तव्य है' 'इस प्रकार की भावना से युक्त होना । और वह (नियोज्यता') स्वर्ग की कामना से युक्त (व्यक्ति) में योग्यता के बोधक रूप में भासित होती है। जिस प्रकार घड़े से जल लामो' यहां घड़े में छिद्र-रहितता (जल लाने की योग्यता का बोधक है उसी प्रकार स्वर्गाभिलाषी व्यक्ति में यजन की योग्यता का सूचक नियोज्यता है)। आचार्य प्रभाकर के मत के अनुयायी विद्वानों की इस प्रक्रिया के विषय में यह पूछा जा सकता हैं कि ऐसा क्यों न माना जाय कि प्रथम बोध में ही - 'स्वर्गाभिलाषी व्यक्ति को याग करना चाहिये यह ज्ञान उत्पन्न होता है तथा इस रूप में 'लिङ्' का वाच्यार्थ 'कार्य' अर्थात् 'अपूर्व'-विशेष न मान कर 'कार्यता' अर्थात् 'कर्तव्य-भावना' को माना जाय, इतनी लम्बी प्रक्रिया मानने तथा उसके उपपादन के लिये पांच प्रकार के अर्थों की कल्पना करने की क्या आवश्यकता ? इस का उत्तर ये मीमांसक यह देते हैं कि याग आदि किसी भी क्रिया में 'यह कायं मुझे करना चाहिये--- यह मेरा कर्तव्य है' इस प्रकार की भावना तब तक नहीं उत्पन्न हो सकती जब तक यह ज्ञान नहीं हो जाता कि यह क्रिया मेरे अभीष्ट को सिद्ध करने वाली है, अर्थात् 'इष्ट-साधनता' से कर्तव्य-ज्ञान की उत्पत्ति हो जाने पर ही कर्तव्यभावना उत्पन्न होती है। इसी बात को परिभाषिक शब्दों में यहाँ यों कहा गया कि 'नियोज्य' का सम्बन्ध हुए बिना याग आदि क्रियाओं में 'कार्यता' का सम्बन्ध नहीं बन सकता । याग मेरे अभीष्ट स्वर्ग का साधक है इसलिये याग मुझे करना चाहिये इस १. ह. में यह पूरा वाक्या छूटा हुआ है। २. निस०, काप्रशु० -ज्ञानाधीन । है-ज्ञानकालीन। ३. ह०, वंमि०-बोधजनकत्वम् । ४. निस०, काप्रशु०-तत्त । For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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