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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २६८ वैयाकरण- सिद्धान्त गरम लघु-मंजूषा भिलाषी याग का करने वाला है" यह चौथा ज्ञान होता है । "मैं स्वर्गाभिलाषी हूं प्रत: मेरी 'कृति' ( प्रयत्नों) के द्वारा याग साध्य है" यह पाँचवाँ ज्ञान होता है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राचार्य प्रभाकर मिश्र के अनुयायी मीमांसकों का ध्यान इस प्रसङ्ग में दूसरी तरफ गया। इन विद्वानों का विचार है कि किसी भी उद्देश्य की सिद्धि के लिये यह नितान्त आवश्यक है कि 'साधन' में आवश्यक गुण विद्यमान हों। जैसे— 'घटेन जलम् श्रानय' इस वाक्य में जलानयन-रूप उद्देश्य की पूर्ति के लिये साधनभूत घट का छिद्र रहित-रूप योग्यता से युक्त होना ग्रावश्यक है। इसी प्रकार याग जो स्वर्ग का साधन है उसमें भी इस प्रकार की योग्यता होनी चाहिये कि वह याजक को स्वर्ग की प्राप्ति करा के । परन्तु यह योग्यता उसमें नहीं है क्योंकि वह क्षणिक है - शीघ्र ही नष्ट हो जाने है | इसलिये मृत्यु के उपरान्त मिलने वाले स्वर्ग का साधन वह नहीं बन सकता । अतः यहां याग में एक ऐसे 'अपूर्व' या 'ग्रदृष्ट' धर्म की कल्पना करनी ही चाहिये जिसमें स्वर्ग का साधन बनने की योग्यता हो । जो स्वर्ग की अवधि तक स्थिर रहने वाला हो । यह 'पूर्व' या 'ग्रइष्ट' धर्म याग से ही उत्पन्न हो सकता है अत: वह याग से सम्बद्ध है | इस रूप में याग के द्वारा 'अपूर्व' की उत्पत्ति तथा उस 'प्रपूर्व' के द्वारा स्वर्ग की सिद्धि होने से परम्परया याग भी स्वर्ग प्राप्ति का साधन बन जाता है। यहां 'कार्य' शब्द का अर्थ है 'कृति' का उद्देश्य, अथवा 'कृति' - साध्य एक विशेष 'अपूर्व', जिसके द्वारा स्वर्ग की प्राप्ति होती । इसलिये वैदिक वाक्यों की दृष्टि से इस 'कार्य' अथवा 'अपूर्व' को ही 'विधि' शब्द का अर्थ मानना चाहिये | आचार्य प्रभाकर मिश्र के प्रबल अनुयायी तथा समर्थक महामहोपाध्याय शालिकनाथ मिश्र की प्रकरणपंचिका की निम्न कारिकायें में इस प्रसंग में द्रष्टव्य हैं : -- क्रिया हि क्षणिकत्वेन न कालान्तरभाविनः । स्वर्गादे: काम्यमानस्य समर्थ जननं प्रति ॥ इष्टस्या जनिका सा च नियोज्येन फलार्थिना । कार्यत्वेन न सम्बन्धम् अर्हति क्षरणभङिगनी ॥ तस्मान् नियोज्य-सम्बन्ध-समर्थविधिवाचिभिः । कार्य कार्यान्तरस्थायि क्रियातो भिन्नम् उच्यते ॥ तद्धि कालान्तरस्थानात् शक्त स्वर्गादिसिद्धये । सम्बन्धोऽप्युपद्येत नियोज्येनास्य कामिना || क्रियादिभिन्नं यत् कार्यं वेद्य मानान्तेरनं तत् । तो मानान्तरापूर्वम् पूर्वम् इति गीयते ॥ ( कारिका सं. २७४-७८ ) जहां तक लौकिक वाक्यों का सम्बन्ध है उनमें प्रवृत्ति का हेतु है 'कार्यता-ज्ञान', अर्थात् यह कार्य मुझे करना चाहिये, यह मेरा कर्तव्य है, इस प्रकार की कर्त्तव्यबुद्धि | वह कर्त्तव्य बुद्धि अथवा कार्यता-ज्ञान तब तक नहीं उत्पन्न होता जब तक 'इष्ट-साधनता' का ज्ञान न हो जाय । जब तक यह पता नहीं लगता कि इस कार्य से किसी अभीष्ट की सिद्धि होगी तब तक कर्त्तव्य - बुद्धि का उदय नहीं होता । अतः 'कार्य' प्रर्थात् 'कार्यता For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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