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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लकारार्थ-निर्णय २६५ तथा 'प्रार्थीभावना' दोनों ही होती हैं 'लिङ्त्व' अंश में 'शाब्दी भावना' तथा 'पाख्यातत्व' या 'लकारत्व' अंश में 'प्रार्थी भावना'। इन दोनों 'भावनामों की दृष्टि से निम्न कारिका द्रष्टव्य है : अभिधाभावनाम् प्राहुर अन्याम् एव लिादयः । अर्थात्मभावना त्वन्या सर्वस्याख्यातगोचरा ॥ तंत्रवार्तिक २.१.१ लिनिष्ठो व्यापारः पदार्थान्तरम्-यहाँ 'प्रवर्तना' को 'लिङ्'-निष्ठ व्यापार तथा ‘पदार्थान्तर' कहा गया है। इसका अभिप्रय यह है कि यह 'प्रवर्तना, जिसका दूसरा नाम 'शाब्दी भावना' है, 'लिङ् लकार के 'लित्व' अंश में रहने वाली प्रेरणा-रूप व्यापार है। और इस रूप में 'पाख्यातत्व' या 'लकारत्व' अंश में रहने वाले मानसिक व्यापार अथवा 'प्रार्थी भावना', से भिन्न है। इसलिये 'प्रार्थी भावना' से भिन्न होने के कारण इसे 'पदार्थान्तर' कहा गया है। यहाँ ‘पदार्थान्तरम्' पद में 'पद' का अभिप्राय 'पदांश' प्रतीत होता है। क्योंकि 'यार्थी भावना' 'ग्राख्थात'-रूप ‘पदांश' का अर्थ है तथा 'शाब्दी भावना 'लिङ्त्व' रूप ‘पदांश' का अर्थ है । ‘पदांश' के लिये भी 'पद' शब्द का प्रयोग होने के कारण यहाँ दोनों ही 'पदार्थ' हैं। इस तरह 'शाब्दी भावना' 'पदार्थान्तर' है अर्थात् दूसरे ‘पदार्थ ('प्रार्थी भावना') से भिन्न है। इस रूप में ही ‘पदार्थान्तर' पद की संगति लग सकती है। लिङ्-पद-ज्ञानम् ...."अभिप्राय-विशेष इत्याहुः-ऊपर 'प्रवर्तना' को 'लिनिष्ठ' एक व्यापार-विशेष कहा गया है। यहाँ 'प्रवर्तना' को एक दूसरे रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है और वह यह है कि 'लिङ्' पद, अर्थात् लिङ्त्वरूप पदांश, का ज्ञान ही 'प्रवर्तना' है । इसका अभिप्रय यह है कि --'लिङ' का अर्थ प्रेरणा होता है-यह ज्ञान होने पर ही श्रोता को 'लिङ् लकार के प्रयोग से प्रेरणा मिलती है। इसलिये यही मानना उचित है कि 'लिङ' का ज्ञान ही 'प्रवर्तना' है या दूसरे शब्दों में 'प्रवर्तना' का हेतु है। इसी बात को और स्पष्ट करते हुए नागेश ने यह कहा कि 'लिङ्'-रूप शब्दांश में जो प्रवृत्ति या प्रेरणा विद्यमान हैं उसका कारण है 'लिङ् का प्रवर्तनारूप से ज्ञान । जब कभी विद्यार्थी अपने गुरु से 'गाम आनयेः,' जैसे 'लिङ् लकार वाले प्रयोग को सुनता है तो उसे यह ज्ञात रहता है कि गुरु मुझे इस विशिष्ट कार्य में प्रवृत्त कर रहे हैं । 'लिङ्' के प्रयोग के सम्बन्ध में इस प्रकार के ज्ञान के रहने पर ही विद्यार्थी की, गौ को लाने इत्यादि कार्यों में, प्रवृत्ति होती है। [नैयायिकों द्वारा उपर्युक्त भाट्ट मीमांसकों के मत का खण्डन] तन्न, स्तन-पानादि-प्रवृत्तौ इष्टसाधनता-ज्ञानस्य हेतुताया आवश्यकत्वात् तत एवोपपत्तौ प्रवर्तनाज्ञानस्या हेतुत्वे १. ह., वंमि-प्रवर्तनाज्ञान For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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