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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६४ वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूपा (शिष्य की) प्रवृत्ति होती है। ('गाम् पानयेः' इत्यादि कहने वाले) प्राचार्य में रहने वाली प्रेरणा तो अभिप्राय-विशेष है-यह (भाटट्-मतानुयायी) कहते हैं। _ विधि' शब्द के अर्थ के विषय में दार्शनिकों में पर्याप्त मतभेद पाया जाता है । स्वयं मीमांसक विद्वानों में ही इस शब्द के अर्थ के विषय में दो वर्ग हैं। पहला है कुमारिल भट्ट के अनुयायियों का तो दूसरा है प्रभाकर या गुरुमत के अनुयायियों का। कुमारिल भट्ट के अनुयायी 'विधि' का अर्थ 'प्रवर्तना' अथवा 'प्रेरणा' करते हैं। इन विद्वानों की दृष्टि में विधिलिङ्' के प्रयोगों से किसी कार्य-विशेष को करने के लिये एक प्रकार की प्रेरणा या 'प्रवर्तना' का बोध होता है। क्योंकि जब कभी 'विधिलिङ्' का प्रयोग किया जाता है तो उससे नियमतः इस प्रकार की प्रतीति होती है कि इस प्रयोग का प्रयोक्ता मुझे इस कार्य को करने के लिये प्रेरित कर रहा है। द्र०"भटट्पादास्तु प्रवर्तयितुः प्रवृत्त्यनुकूलो व्यापार-विशेषः प्रवर्तना इत्याहुः” (न्यायकोश)। इस 'प्रर्वतना' या प्रेरणा को ही 'शाब्दी भावना' भी कहा गया है। लौकिक वाक्यों में प्रयुक्त 'विधिलिङ्' के प्रयोगों से प्रतीत होने वाली 'प्रवर्तना' को वक्ता पुरुष में विद्यमान अभिप्राय-विशेष माना जाता है। परन्तु 'स्वर्ग-कामो यजेत' जैसे वैदिक वाक्यों में प्रयुक्त 'विधिलिङ' के प्रयोगों में यह 'प्रवर्तना' या प्रेरणा पुरुषनिष्ठ नहीं मानी जाती । क्योंकि मीमांसकों की दृष्टि में वेद अपौरुषेय हैं, उनका कर्ता या वक्ता कोई नहीं है। इसलिये वैदिक वाक्यों में यह 'प्रवर्तना' 'लिङ' लकार-निष्ठ अथवा शब्दनिष्ठ मानी जाती है। इन दोनों प्रकार की 'प्रवर्तना' को 'शाब्दी भावना' माना जाता है । 'प्रर्वतना' को 'शाब्दी भावना' कहने का मूल कारण यह प्रतीत होता है कि वैदिक वाक्यों में यह प्रेरणा शब्दनिष्ठ या 'लिङ'-निष्ठ मानी जाती है। द्र० -- "तत्र पुरुष-प्रवृत्त्यनुकूलो भावयितुर्व्यापार-विशेषः शाब्दी भावना । सा च लिङशेनोच्यते । लिङ्-श्रवणेऽयं मां प्रवर्तयतीति -- मत्प्रवृत्त्यनुकूल-व्यापारवान् अयम् इति - नियमेन प्रतीतेः । स च व्यापारविशेषो लौकिक-वाक्ये पुरुष-निष्ठोऽभिप्रायविशेष: । वैदिक-वाक्ये तु पुरुषाभावात् लिङ्गदिशब्दनिष्ठ एव । अत एव शाब्दी भावनेति व्यवह्रियते' अर्थसंग्रह (६) । 'शाब्दी भावना' से भिन्न एक दूसरी भी भावना है जिसे 'यार्थी भावना' कहा जाता है। किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति की दृष्टि से तदनुकूल क्रिया को करने के लिये पुरुष की जो मानसिक प्रवृत्ति या क्रियाशीलता है उसे मीमांसक 'प्रार्थी भावना' कहते हैं । यह 'प्रार्थी भावना' लकारमात्र अथवा प्राख्यातसामान्य का वाच्य अर्थ माना जाता है । क्योंकि ये मीमांसक 'व्यापार' को धातु का अर्थ न मान कर 'पाख्यात' का अर्थ मानते हैं। द्र०-"प्रयोजनेच्छा-जनित-क्रिया-विषय-व्यापार प्रार्थीभावना । स च पाख्यातत्वांशेन उच्यते । आख्यात-सामान्यस्य व्यापारवाचित्वात्' अर्थसंग्रह (८)। इस रूप में 'लिङ' लकार के प्रयोगों में दो अंश हैं 'लिङ्त्व' अंश तथा 'पाख्यातत्व' अंश । 'पाख्यातत्व' तो सभी 'लकारों' में पाया जाता है, इसलिये 'पाख्यातत्व' का वाच्य अर्थ 'व्यापार' या, 'पार्थी भावना' सभी 'लकारों' में पायी जाती है। परन्तु 'शाब्दी भावना', केवल 'लिङ्त्व' अंश का ही अर्थ है इसलिये केवल 'लिङ् लकार के प्रयोगों में ही पायी जाती है । इस प्रकार 'लिङ' लकार के प्रयोगों में 'शाब्दी भावना' For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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