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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६६ वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा मानाभावात्। 'स्वर्गकामोय जेत' इत्यादौ 'प्रवर्तना-विषया यागकरणिका स्वर्गकमिका भावना' इति बोधस्य परैर भ्युपगमात् । प्रवर्तना-विषयत्वमात्रज्ञानात् प्रवृत्त्यनुपपत्तेः। आवश्यक-स्वर्गसाधनत्वादि-ज्ञानाद् एव तत्र प्रवृत्तः । (भाट्ट मीमांसकों का) वह (कथन) उचित नहीं है, क्योंकि (शिशु) की दुग्धपान आदि (कार्यों) की प्रवृत्ति में, 'यह हमारे अभीष्ट की सिद्धि करने वाला है' इस प्रकार के ज्ञान को हेतु मानना आवश्यक है। (इसलिये) इस ('इष्ट साधनता-ज्ञान') से ही सर्वत्र (लोक और वेद में) सङ्गति लग जाने पर 'प्रवर्तना' ज्ञान को (प्रवृत्ति का) हेतु मानने में कोई प्रमाण नहीं है। क्योंकि 'स्वर्गकामो यजेत' इत्यादि (वाक्यों) में, 'जो प्रेरणा का विषय है, याग जिसमें 'करण' है तथा स्वर्ग जिसका 'कर्म' है ऐसी भावना' यह बोध होता है, इस बात को दूसरों (भाट्ट मीमांसकों) ने भी माना है । अतः केवल 'यह प्रवर्तना का विषय है' इस ज्ञान से (किसी कार्य में व्यक्ति की) प्रवृत्ति नहीं होती। आवश्यक स्वर्ग की साधनता आदि के ज्ञान से ही (यज्ञकर्ता की) वहाँ (याग आदि में) प्रवृत्ति होती है । भाट्ट मीमांसकों के उपर्युक्त मत का खण्डन करते हुए यहां नैयायिक यह कहता है कि 'प्रवर्तना' या प्रेरणा को, किसी कार्य में, व्यक्ति की प्रवृत्ति का कारण या हेतु मानने की आवश्यकता नहीं क्योंकि 'प्रवर्तना' या प्रेरणा के न होने पर भी कार्य में व्यक्ति की प्रवृत्ति देखी जाती है। जैसे जन्म के तुरन्त पश्चात् सर्वथा अबोध शिशु, जिसे प्रेरणा क्या होती है इस बात का थोड़ा सा भी ज्ञान नहीं है, मां के स्तन-पान-रूप कार्य में प्रवृत्त होता है। या इसी प्रकार पशु पक्षियों की, जिन्हें इस बात का कुछ भी ज्ञान नहीं है कि कार्य में प्रवृत्त होने का हेतु 'प्रवर्तना' (प्रेरणा) होती है, विभिन्न कार्यों में प्रवृत्ति देखी जाती है। इसलिये यह नहीं कहा जा सकता कि एक मात्र 'प्रवर्तना' (प्रेरणा) ही प्रवृत्ति का हेतु है । अतः इन सभी उपरिनिर्दिष्ट स्थलों में 'प्रवर्तना' से काम न चलने पर 'इष्टसाधनता के ज्ञान', अर्थात् यह कार्य मेरे अभीष्ट की सिद्धि करने वाला है इस प्रकार के ज्ञान, को ही प्रवृत्ति का कारण मानना पड़ता है। ऐसी स्थिति में 'प्रवर्तना' को प्रवृत्ति का कारण न मानकर 'इष्ट-साधनता-ज्ञान' को ही प्रवृत्ति का कारण क्यों न माना जाय जब एक कारण मानने से काम चल जाता है तो फिर दो-दो कारण मानने की क्या प्रावश्यकता? इसके अतिरिक्त, नैयायिक का कहना यह है कि, ये मीमांसक विद्वान् स्वयं इस बात को स्वीकार करते हैं कि 'स्वर्ग-कामो यजेत' का अभिप्राय "एक ऐसी 'भावना' है जो प्रेरणा का विषय है तथा जिसका स्वर्ग 'कर्म' है और याग 'करण' है।" १. ह०-प्रवर्तनाविषय; काप्रशू०-प्रवर्तनाविषयो। २. ह.-परैरप्याम्युपगमात् । For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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