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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सात का एक मात्र लक्ष्य था। यही है सस्कृत वैयाकरणों का शब्दाद्वैतवाद । इस अद्वैत तत्त्व रूप 'शब्दब्रह्म' के परम रहस्यभत स्वरूप को अधिगम कर लेना ही मुक्ति है। भर्तृहरि ने इसी दृष्टि से इस शब्द-संस्कार की प्रक्रिया को परमात्मा की प्राप्ति अथवा उसके साक्षात्कार का उपाय माना है तथा यह कहा है कि जो साधक इन स्थूल शब्दों के प्रयोग (उच्चरण) के मूल में विद्यमान तत्त्व ('प्रवृत्ति-तत्त्व') को जान लेता है, उसका अनुभव कर लेता है, वह 'शब्दब्रह्मरूप' परम अमत का प्रास्वादन कर लेता है । वस्तुतः शब्द-प्रयोग के मूल में विद्यमान चेतना ही तो वक्ता की अत्मा है, उसका प्रान्तर ज्ञान है। इस प्रात्म-तत्त्व को जानने का उपदेश ही सम्पूर्ण उपनिषदों का प्रतिपाद्य है। इस प्रात्मा तथा परमात्मा में कोई तात्त्विक अन्तर नहीं है । इसलिए शब्द-प्रवृत्ति के मूल भूत तत्त्व का सच्चा ज्ञाता परमात्मा को, वैयाकरणों के 'शब्दब्रह्म' को, पा लेगा -- इसमें क्या सन्देह हो सकता है ? भर्तृहरि ने इस 'शब्द-ब्रह्म' को अमृत कहा है । वह अमृत इसलिए है कि इस दिव्य ज्ञान रूप सोम के पान से साधक भी अमृत हो जाता है, अमर बन जाता है, दिव्य प्रकाश को पाकर स्वयं दिव्य बन जाता है। भर्तृहरि की इन कारिकाओं को पढ़ते हुए वैदिक ऋषियों की वह ऋचा बरबस याद आ जाती है जिसमें उन्होंने यह कहा था कि-"हमने सोम पान कर लिया, हम अमर हो गए, दिव्य ज्योति को प्राप्त कर लिया, दिव्यताएँ हममें समाहित हो गईं,' इत्यादि । इस कारिका की स्वोपज्ञ टीका में दो तीन श्लोक किसी प्राचीन ग्रन्थ से उद्धृत हैं। इनमें से अन्तिम दो श्लोकों में भी यह कहा गया है कि वाणी का संस्कार करके तथा वाणी और ज्ञान को अभिन्न बना कर, वाणी को सभी बाह्य बन्धनों-भेदों तथा उपभेदों-- से रहित कर प्रान्तर ज्योति की प्राप्ति होती है और फिर सभी ग्रन्थियों, संशयों, कर्मों और अज्ञान-जन्य विविध भ्रन्तियों का निवारण होकर परात्पर ज्योति से पूर्ण एकता हो जाती है, पूर्णतः तादात्म्य अथवा अभेद हो जाता है, शब्दब्रह्म का यह ज्ञाता स्वयं भी शब्दब्रह्म बन जाता है, और इस रूप में संस्कृत व्याकरण के अध्ययन का अन्तिम प्रयोजन' प्राप्त हो जाता है । १. वाप० १. १२३; तस्माद्यः शब्दसंस्कारः सा: सिद्धिः परमात्मनः । तस्य प्रवृत्तितत्त्वज्ञस्तद् ब्रह्मामृतमश्नुते ।। द्र० वाप० १. ११८ की स्वापज्ञ टीका में उद्धत; ते मत्युमतिवर्तन्ते ये वै वाचमुपासते । ३. ऋगवेद ६.४३.३; अपाम सोमममृता अभूम अगन्म ज्योतिर् अविदाम देवान् । वाप० १.१२३ की स्वोपज्ञ टीका में उद्धत; बाच: संस्कारमाधाय वाचं ज्ञाने निवेश्य च । विभज्य बन्धनान्यस्याः कत्वा तां छिन्नबन्धनाम् ।। ज्योतिरान्तरमासाद्य छिन्नग्रन्थिपरिग्रहः । परेण ज्योतिषकत्व छित्त्वा ग्रन्थीन् प्रपद्यते ।। ५. द्र० व्याकरणमहाभाष्य, प्रथम आह्निक, पृ० ३१; महता देवेन नः साम्यं यथा स्याद् इत्यध्येयं व्याकरणम् For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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