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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आठ इसी दृष्टि से व्याकरण को मोक्ष का द्वार' तथा मुमुक्षत्रों के लिए राज-पद्वति और सिद्धि-सोपान का प्रथम पर्व' (पैर रखने का स्थान) कहा गया है। व्याकरण-दर्शन का मनस्वी एवं निष्ठवान् अध्येता विपर्यास अर्थात् अविद्या, अज्ञान एवं भेद-बुद्धि का नितान्त निरसन करके, सर्वथा परिष्कृत एवं छन्दस्य बनकर, उस 'केवला' (अनिर्वचनीया अथवा परम शुद्धा) वाणी का दर्शन करता है, जो सभी छन्दोबद्ध वैदिक ऋचाओं का भी मूल है। जिसमें सभी भेद, विभाग एवं प्रक्रियाएँ समाप्त हो जाती हैं, उस अविभक्त एवं नाम-रूप-रहिता वाणी का सर्वोत्तम रूप है यह 'केवला' वाणी। अभिन्नता एवं अद्वितीयता के कारण ही इसे 'केवला' कहा गया। यही वह अद्भुत प्रकाश है, जिसकी उपासना, सभी रूपों तथा क्रियाओं से ऊपर उठकर और मानव बुद्धि-निर्मित-पाप-पुण्य, सत्य-असत्य, सुकृत-दुष्कृत इत्यादि द्वन्द्वों से सम्बद्ध सभी मापदण्डों एवं कसौटियों से परे जाकर सर्वत्र एक मात्र शब्द तत्त्व का ही दर्शन करने वाले, समदर्शी शब्दिक साधक ही कर पाते हैं। संस्कृत-व्याकरण-दर्शन की यह अद्भुत एवं सर्वथा असाधारण विशेषता है, जो विश्व के किसी भी अन्य व्याकरण में अनुपलब्ध है। संस्कृत-व्याकरण केवल व्याकरण अथवा व्याकृति न हो कर दर्शन है जबकि अन्य व्याकरण शब्दों के खिलवाड़ मात्र बन कर रह गए हैं, उनका उद्देश्य केवल भाषा का कथंचित ज्ञान करा देना हो है । व्याकरण-दर्शन का प्रतिपाद्य-संस्कृत-व्याकरण-दर्शन सामान्यतया शब्द, अर्थ तथा उनके सम्बन्ध के विषय में विचार करता है। वैयाकरणों की दृष्टि में 'शब्द' का अभिप्राय है अखण्ड वाक्य अथवा अखण्ड पद, जिससे कोई भाव (Idea) या अभिप्राय प्रकट हो सके। व्याकरणदर्शन सामान्यतया अखण्ड वाक्य को ही अखण्ड वाक्यार्थ का वाचक मानता है। कहीं-कहीं अखण्ड पद को भी अखण्ड पदार्थ का वाचक माना गया है। इसी कारण वाक्यस्फोट तथा पदस्फोट इन दोनों की कल्पना की गई तथा इनकी दृष्टि से विविध समस्याओं पर विचार किया गया है। यहाँ वाक्य तथा पद को 'अन्वाख्येय' माना गया है, जिनका अन्वाख्यान, विश्लेषण, संस्क्रिया अथवा स्वरूप-सिद्धि का प्रयास व्याकरण की प्रक्रिया भाग में किया जाता है । जिन कल्पित भागों तथा अंशों से इन अन्वाख्येय शब्दों (वाक्यों तथा पदों) का अन्वाख्यान किया जाता है, उन्हें 'प्रतिपादक' शब्द कहा गया है। वाक्य रूप 'अन्वाख्येय' शब्द के 'प्रतिपादक' हैं वाक्य में कल्पित १. वाप० १.१४; तद् द्वारम् अपवर्गस्य । २. वही १.६; इदमाद्य पदस्थानं सिद्धिसोपानपर्वणाम् । इयं सा मोक्षमाणानाम् अजिमा राजपद्धतिः ।। वही-१. १७. अत्रातीतविपर्यासः केवलामनुपश्यति । छन्दस्य श्छन्दसां योनिमात्मा छन्दोमयीं तनुम् ॥ वही-१. १८; प्रत्यस्त मितभेदाया यद् वाचो रूपमुत्तमम् । यदस्मिन्नेव तमसि ज्यतिः शुद्ध विवर्तते ॥ वही-१. १६; वैकृतं समतिक्रान्ता मूर्ति व्यापारदर्शनम् । व्यतीत्यालोकतमसी प्रकाशं यमुपासते ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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