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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रतीत होता है । वस्तुतः हमारी भेदवती बुद्धि, अथवा समझने समझाने की प्रक्रिया, के कारण उस में भेद अथवा वैविध्य प्रतीत होता है । इस प्रकार यह 'शब्दब्रह्म' ही, जिसे 'अशब्द', 'केवला वाक', 'परा वाक्' आदि नामों अथवा विशेषणों से प्रकट किया गया है, सब सृष्ट पदार्थों की मूलभूता आद्या प्रकृति है। ___'शब्द-ब्रह्म' के स्वरूप-ज्ञान से मुक्ति -- इस अविनाशी 'शब्दब्रह्म' की सार्वत्रिक सत्ता एवं उसकी विविधरूपता के प्रतिपादन के लिये व्याकरण के प्राचार्यों ने अनेक विध प्रक्रियाओं तथा कल्पनाओं को जन्म दिया। प्रकृति प्रत्ययों की विशाल शृखला, चतुर्विध पद-विभाग, इत्यादि उन्हीं कल्पनाओं के परिणाम है । यह बड़े अश्चर्य की बात मानी जायगी कि जिन वैयाकरणों ने शब्द को अखण्ड, अविच्छेद्य एवं नित्य माना उन्होंने ही, शब्द तत्त्व के स्वरूपाधिगम की दृष्टि से, शब्दों के सूक्ष्मातिसूक्ष्म विभाग किये । यहाँ तक कि रूढ़ि शब्दों में भी 'प्रकृति', प्रत्यय' आदि की कल्पना को पराकाष्ठा तक पहुँचा दिया। पर इन सभी असत्य विभागों तथा तत्सम्बद्ध कल्पनाओं के द्वारा उसी एक, अविभक्त एवं सत्य स्वरूप महान् 'शब्द' देव के साथ सान्निध्य प्राप्त करना, उसका सर्वत्र सतत अनुभव करना, सभी भूतों में उसे तथा उसमें सब भूतों को देखते हुए अपने को उस अात्मतत्त्व से अभिन्न बना देना तथा इस रूप में उसका सान्निध्य प्राप्त करना ही इन शाब्दिक साधकों १. द्र०-बाप० १.२; एकमेव यदाम्नातं भिन्न शक्तिव्यपाश्रयात् । अपथक्त्वेऽपि शक्तिभ्यः पृथक्त्वेनेव वर्तते ।। द्र०-वाप० १.११८ की स्वोपज्ञ टीका में उद्धत: भेदोद्ग्राहनिवर्तेन लब्धाकारपरिग्रहा । आम्नाता सर्व विद्यासु वागेव प्रकृति: परा ।। द्र०-वाप० २.२३८%; उपाया: शिक्षमाणानां बालानाम् उपलालना: । असत्ये वर्त्मनि स्थित्वा तत: सत्यं समीहते ।। तुलना करो-भूसा०, कारिका सं०६८; उपेयप्रतिपत्त्यर्थमुपाया अव्यवस्थिताः । पञ्चकोशादिवत्तस्मात् कल्पनैषा समाश्रिता । तुलना करो-- भगवद्गीता ५.१७ तबुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणा: । गच्छन्त्यपुनरावृत्ति ज्ञाननिधू तकल्मषाः ।। तुलना करो-ईशोपनिषत्-६ यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्नेवानुपश्यति । सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते ।। तथा भगवद्गीता ६.२६ । सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि । ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शन: ।। द्र० महा० पस्पशाह्निक (गुरुप्रसाद संस्करण) पृ० ३१ ; महान् देवः शब्दः । महता देवेन नः साम्यं यथा स्यादित्यध्येयं व्याकरणम् । तथा-वाप० १.१३१; अपि प्रयोक्तुरात्मानं शब्दमन्तरवस्थितम् । प्राहुर्महान्तमषभं तेन सायुज्यमिष्यते ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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