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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाँच ने कहा-"प्रकाश हो जाय और प्रकाश हो गया। इसी 'पर शब्द' की दृष्टि से यह कथन भी समझ में आता है कि "परमेश्वर ने वेदों के शब्दों से सृष्टि का निर्माण किया"। 'पर शब्द' के बाद की स्थिति 'शब्द तन्मात्रा' की है। इस शब्द के श्रवणीय होने की कल्पना तो की जा सकती है पर वह श्रवणीयता सर्वसामान्य के लिए नहीं है। इस 'शब्द-तन्मात्रा' के पश्चात् 'सूक्ष्म शब्द' और फिर 'स्थूल शब्द' की स्थिति मानी गई। 'शब्द-तन्मात्रा' तथा 'सूक्ष्म शब्द' के स्पन्दन का अनुभव भौतिक श्रोत्र तो नहीं कर पाते पर योगियों के दिव्य श्रोत्र उन्हें अवश्य ग्रहण कर लेते हैं। 'स्थूल शब्द' को शब्द की अभिव्यक्ति का निम्नतम स्तर कहा जायगा जो अपने स्थूल एवं बाह्य स्पन्दनों के द्वारा भौतिक श्रोत्रों को उत्तेजित करके उन स्पन्दनों को श्रवण-योग्य बनाता है। इस प्रकार यह अव्यक्त शब्द अथवा 'अशब्द' ही, अपने ‘पर शब्द'-रूप एक अंश से, सम्पूर्ण सृष्टि प्रपंच के रूप में प्रकट हो रहा है। यह ‘पर शब्द' अथवा' सूक्ष्मातिसूक्ष्म स्पन्दन, (जिसे गति, चेष्टा, हरकत जैसे शब्दों से समझा जा सकता है) ही वह विश्वप्रसविनी प्राद्या वाणी है जो प्राम्भणी ऋषिका के नाम से ऋग्वेद में अपना असाधारण महत्त्व उद्घोषित करती हुई अन्त में यह कहती है कि-"मैं ही सम्पूर्ण भुवनों का उत्पादन करती हुई, सृष्टि की उत्पत्ति के लिए उन्मुख होती हुई, सृष्टि के प्रारम्भ में वायु के समान विशेष रूप से गतिशील हो जाती हूँ, स्पन्दन अथवा चेष्टा आदि से युक्त बन जाती हूं। मैं द्यु लोक तथा पृथ्वी लोक आदि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड अथवा सृष्टि के पसारे से अत्यन्त परे हूँ, विलक्षण हूँ तथा अपनी असीम एवं अनिर्वचनीय महिमा से नितान्त असाधारण हूँ और परम महिमामयी बनी हुई हूँ।” 'पर शब्द'-रूप यह स्पन्दन तथा उसका आश्रयभूत वह अविज्ञ य तत्व, जिसमें स्पन्दन हो रहा है, अर्थात् 'पर शब्द' तथा उसकी पूर्वावस्थारूप मूलभूत शब्द ('अशब्द') ये दोनों ही सर्वथा अभिन्न हैं, एक हैं, अखण्ड हैं और अविच्छेद्य हैं । अन्तर केवल स्थिति का है। 'अशब्द' रूप यह अभिन्न तत्त्व ही वैयाकरणों का 'शब्दब्रह्म' है, जो स्पन्दन करती हुई किंवा विभिन्न कार्यो का निष्पादन करती हुई, अपनी अनन्तानन्त शक्तियों का प्राश्रय बन कर भी उनसे सर्वथा अभिन्न है और अभिन्न होकर भी उन शक्तियों से भिन्न सा 9. Bible, Old testament Genesis, Chapter 1, 3; And God said let there be light and there was light २. द्र०.-महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय २३, श्लोक सं० २४; अनादिनिधना नित्या वाग् उत्सृष्टा स्वयम्भुवा । आदौ वेदमयी दिव्या यत: सर्वाः प्रवृत्तयः ।। वाप० १.२०; शब्दस्य परिणामोऽयम् इत्याम्नायविदो विदुः । छन्दोभ्य एव प्रथमम् एतद् विश्व व्यवर्तत ।। तथा ऋग्वेद के सायण-भाष्य का प्रारम्भिक श्लोक २; यस्य निःश्वसितं वेदा यो वेदेभ्योऽखिलं जगत् । निर्ममे तमहं वन्दे विद्यातीर्थ महेश्वरम् ।। ऋग्वेद १०.१२५.८) अहमेव वात इव प्रवाम्यारभमाणा भुवनानि विश्वा। परो दिवा पर एना पथिव्यैतावती महिना सम्बभूव।। For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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