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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२८ वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा तद्धात्वर्थनिष्ठ प्रकारतावत्त्वम् ‘फल' की इस परिभाषा में दूसरी बातें ये कही गयीं कि फल 'व्यापार'-जन्य होने के कारण विशेष्य होते हुए भी, कर्तृवाच्य में विशेषण बनता है तथा धात्वर्थरूप 'व्यापार' को विशेषित करता है। जैसे-पच्' धातु का 'फल' है 'पाक' (चावल आदि का गल जाना) । यह 'पाक'-रूप 'फल' एक तो पकाना क्रिया या 'व्यापार' रूप धात्वर्थ से उत्पन्न होता है इसलिये विशेष्य है । दूसरे 'पचति' आदि कर्तृवाच्य के प्रयोगों में 'पाक' रूप 'फल' की उत्पादिका क्रिया या 'पाकानुकूल व्यापार' इस अर्थ की प्रतीति होती है इस रूप में यहाँ, धात्वर्थ ('व्यापार') को विशेषित करने के कारण, वहीं 'फल' विशेषण भी बनता है। विभागजन्य-संयोगादिरूपे... उभयम् -'वृक्षात पत्रं भूमौ पतति' (पेड़ से पत्ता भूमि पर गिरता है) इस प्रयोग में 'पत्' धातु का अर्थ है विभागजन्य संयोग। पहले पत्ता वृक्ष से अलग होता है, फिर भूमि पर आता है-भूमि से उसका संयोग होता है । अब ‘पत्' धातु के इस अर्थ में विभाग तथा संयोग इन दोनों में 'फलत्व' की अतिव्याप्ति न हो जाय इसलिये यहां 'फल' को विशेष्य तथा विशेषण दोनों कहा गया। यदि यहां 'फल' की परिभाषा में 'धात्वर्थ-जन्य'- ('व्यापार' से उत्पन्न होने वाला) यह अंश न कह कर, अर्थात् 'फल' को विशेष्य न बनाते हुए, केवल इतना ही कहा जाय कि धात्वर्थ रूप 'व्यापार' को विशेषित करने वाला ही 'फल' होता है, अर्थात् 'फल' को केवल विशेषण के रूप में ही प्रस्तुत किया जाय, तो ऊपर के उदाहरण में विभाग में 'फलत्व' की अतिव्याप्ति होगी क्योंकि विभाग विशेषण बन कर 'पत' धातु के अर्थ-संयोग-को विशेषित करता है। विभाग-जन्य संयोग ही यहाँ 'व्यापार' है । इसलिये विभाग, संयोगरूप, 'व्यापार' का विशेषण बन जाता है। परन्तु 'फल' को 'धात्वर्थ-जन्य' कह देने पर विभाग में फलत्व की अतिव्याप्ति नहीं होगी क्योंकि विभाग धात्वर्थ रूप संयोग से जन्य नहीं है, अपितु वह सयोग का जनक है। इसी प्रकार यदि "धात्वर्थ भूत 'व्यापार' - को विशेषित करने वाला" यह अंश न कह कर केवल इतना ही कहा जाय कि 'फल' धात्वर्थ-जन्य होता है, अर्थात् केवल उसे विशेष्य के रूप में ही प्रस्तुत किया जाय, तो यहाँ 'पत्' के धात्वर्थ (संयोग) में 'फलत्व' की अतिव्याप्ति होती है क्योंकि संयोग धात्वर्थ (विभाग 'व्यापार') से जन्य है । परन्तु "धात्वर्थनिष्ठ-विशेष्यता-निरूपित-प्रकारतावत्त्वम्", अर्थात् 'फल' 'व्यापार' का विशेषण है यह कह देने पर संयोग में 'फलत्व' की अतिव्याप्ति नहीं होती क्योंकि संयोग धात्वर्थ (विभाग) को विशेषित करने वाला नहीं है अपितु वह स्वयं विशेष्य है तथा विभाग उसका विशेषण है। संयोग विभाग से जन्य होता है न कि विभाग संयोग से जन्य। इसलिये इन दोनों संयोग तथा विभाग में 'फलत्व' की अतिव्याप्ति को रोकने के लिये 'फल' की परिभाषा में उसे विशेष्य तथा विशेषण दोनों ही कहा गया। For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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