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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धात्वयं-निर्णय १२७ व्यापारो धात्वर्थः- नागेश केवल 'व्यापार' को ही धात्वर्थ मानते हैं । भट्टोजी दीक्षित तथा उनके अनुयायी कौण्डभट्ट 'फल' तथा 'व्यापार' दोनों को धात्वर्थ के रूप में स्वीकार करते हैं । परन्तु नागेश ने उनकी इस मान्यता का आगे खण्डन किया है। वस्तुतः नागेश 'फल' तथा 'व्यापार' दोनों को पृथक पृथक् धातु का अर्थ न मानते हुए 'फलानुकूल व्यापार' को धातु का अर्थ मानना चाहते हैं । जैसे-'पच्' धातु का अर्थ है--'पाक रूप फल के अनुकूल होने वाला पचन व्यापार'।। यहाँ 'व्यापार' को एक और विशेषण से विशेषित किया गया है। वह विशेषण है-'यत्न-सहित:', अर्थात् फलानुकूल व्यापार भी यदि यत्न-सहित होगा तभी उसे धात्वर्थ माना जायगा अन्यथा नहीं । यदि पकाने के व्यापार में पाचक का कोई यत्न नहीं है तो वहां 'अयं न पचति' यही प्रयोग होगा, 'अयं पचति' यह प्रयोग नहीं होगा। ['फल' की परिभाषा फलत्वं च तद्-धात्वर्थ -जन्यत्वे सति कर्तृ-प्रत्यय-समभिव्याहारे' तद्-धात्वर्थ निष्ठ-विशेष्यता-निरूपित-प्रकारतावत्त्वम् । विभागजन्य-संयोगादिरूपे पतत्यादिधात्वर्थे विभागसंयोगयोः फलत्व-वारणाय उभयम् । कर्म-प्रत्यय समभिव्याहारे तु फलस्य विशेष्यता । 'फल' उस धात्वर्थ से उत्पन्न होने वाला होता हुआ, 'कर्तृ' (वाचक) प्रत्यय की समीपता में, उस धात्वर्थ में विद्यमान विशेष्यता से निरूपित (ज्ञापित) विशेषणता से युक्त होता है। 'पत्' आदि (धातुओं) के 'विभागजन्य संयोग' रूप धात्वर्थ में (विद्यमान) विभाग तथा संयोग में ‘फलत्व' (की अतिव्याप्ति) के निवारण के लिये (यहां 'फल' की परिभाषा में 'फल' को) दोनों (विशेष्य तथा विशेषण) कहा गया । 'कर्म' (वाचक) प्रत्यय को समीपता में 'फल' (विशेषण न होकर) विशेष्य होता है। धात्वर्थ-जन्यत्वे सति .. 'फल की परिभाषा में पहली बात यह कही गयी कि 'फल' धात्वर्थ-जन्य होता है-धात्वर्थ जो 'व्यापार' उससे उत्पन्न होने वाला होता है। 'फल' 'व्यापार'-जन्य तो होगा ही क्योंकि 'व्यापार' की परिभाषा में 'व्यापार' को, फलोत्पत्ति के अनुकूल होने पर ही 'व्यापार' माना गया है। यह 'व्यापार'-जन्यता कहीं कहीं आरोपित होती है वास्तविक नहीं। जैसे-'ईश्वरस्तिष्ठति' या 'पत्ये शेते' इन प्रयोगों में ठहरने या सोने आदि 'व्यापारों' से किसी 'फल' की वास्तविक जन्यता नहीं है। इस अंश में 'फल' को विशेष्य माना गया क्योंकि धात्वर्थ-रूप 'व्यापार' से जन्य (उत्पन्न होने वाला) होना उसका विशेषण है। १. ह. में यहां क्रम परिवर्तित हो गया है-कत प्रत्यय-समभि-व्याहारे तद्-धात्वर्थ-जन्यस्वे सति । For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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