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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बात-निर्णय १२९ कर्म-प्रत्यय-समभिन्याहारे । विशेष्यता-केवल कर्तृवाच्य की दृष्टि से यहां 'फल को धात्वर्थ ('व्यापार') का विशेषण कहा गया है। कर्मवाच्य में तो, आख्यात 'कर्म' को कहता है 'कर्ता' को नहीं कहता इसलिये, 'फल' विशेषण न होकर, विशेष्य रहता है-प्रधान बन जाता है । वस्तुतः कर्तृवाच्य में 'व्यापार' विशेष्य तथा 'फल' विशेषण बनता है परन्तु कर्मवाच्य में 'फल' विशेष्य तथा 'व्यापार' विशेषण बनता है। ['व्यापार' पद का स्पष्टीकरण तथा 'धात्वर्य' को परिभाषा में पाये 'अनुकूल' शम्ब का अभिप्राय] व्यापारत्वं च-'धात्वर्थफलजनकत्वे सति धातुवाच्यत्वम्'। 'अनुकूलत्वम्' संसर्गः । 'अनुकूलत्वम्' च फल-निष्ठ जन्यता-निरूपित-जनकत्वम् । धातु के अर्थ ('फल') का उत्पादक होते हुए धातु का वाच्य अर्थ 'व्यापार' है। (धात्वर्थ की परिभाषा में) 'अनुकूलता' है ('फल' तथा 'व्यापार' का) सम्बन्ध । और (इस) 'अनुकूलता' (का अभिप्राय है) 'फल' में रहने वाली जन्यता से निरूपित (द्योतित) जनकता । व्यापारत्वं च....."धातुवाच्यत्वम् –'व्यापार' की परिभाषा में दो बातें कही गयीं। पहली यह कि 'व्यापार' धात्वर्थ रूप 'फल' का उत्पादक होता है क्योंकि फलानूकूल प्रयास को ही 'व्यापार' कहा जाता है तथा दूसरी बात यह कि 'व्यापार' स्वयं भी धातु का अर्थ होता है। वस्तुतः 'फल' भी धातु का अर्थ है तथा 'व्यापार' भी। अन्तर इतना ही है कि 'व्यापार' 'फल' का जनक है या दूसरे शब्दों में 'फल' 'व्यापार'-जन्य है, अर्थात् 'व्यापार' से उत्पन्न होने वाला है । यदि 'व्यापार' की परिभाषा में केवल इतना ही कहा जाए कि "जो धात्वर्थ रूप 'फल' का जनक है वह 'व्यापार' है" तो पहले जो 'व्यापार' को धात्वर्थ कह आये हैं-"व्यापारो धात्वर्थः''-उससे विरोध उपस्थित होता है। यदि केवल इतना ही कहा जाए कि "धातु का अर्थ 'व्यापार' है" तो 'फल' में लक्षण की अतिव्याप्ति होगी, अर्थात् 'फल' को भी 'व्यापार' मानना पड़ेगा क्योंकि 'फल' भी धात्वर्थ है ही। अनुकूलत्वं....."जनकत्वम् -ऊपर घात्वर्थ की परिभाषा में- "फलानुकूलो यत्नसहितो व्यापारो धात्वर्थः' में जो 'अनुकूल' शब्द है उसका अभिप्राय है 'फल' तथा 'व्यापार' का पारस्परिक सम्बन्ध (संसर्ग) । इस सम्बन्ध को ही 'जन्य-जनकता'सम्बन्ध कहकर और स्पष्ट किया गया है। 'फल' जन्य है तथा 'व्यापार' जनक है । इसलिए 'जन्यता' 'फल' में रहती है और उस 'फल-निष्ठ जन्यता' से व्यापार' में रहने वाली जनकता का ही ज्ञान होता है। ये दोनों 'फल' तथा 'न्यापार' इस 'जन्य-जनकता'-रूप सम्बन्ध से सम्बद्ध हैं। For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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