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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org धात्वर्थ-निर्णयः [ धातुओं के श्रयं के विषय में विचार ] ग्रंथ सकल-शब्द-मूल भूतत्वाद्' धात्वर्थी निरूप्यते । तत्र 'फलानुकूलो यत्न- सहितो व्यापारः' धात्वर्थः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अब सभी शब्दों का मूल होने के कारण, धातु के अर्थ के विषय में विचार किया जाता है । इस प्रसंग में 'फल' (की उत्पत्ति) के अनुकूल ( होने वाला) यत्न सहित व्यापार " धातु का (सामान्य) अर्थ है । सकल शब्द-मूल-भूतत्वात् -- वैयाकरणों तथा नैरुक्त प्राचार्यों में एक ऐसा वर्ग था जो सभी शब्दों को प्रख्यात या धातु से उत्पन्न मानता था। इस बात की स्पष्ट सूचना निरुक्तकार यास्क के निम्न शब्दों में मिलती है - "नामान्याख्यातजानि इति शाकटायनो नैरुक्त समयश्च ( निरुक्त १.१२), अर्थात् सभी 'नाम' अथवा 'प्रातिपदिक' शब्द धातु से निष्पन्न हैं यह सिद्धान्त वैयाकरण विद्वानों में शाकटायन को तथा प्रायः सभी नैरुक्त विद्वानों को अभिमत था । परन्तु शाकटायन से इतर वैयाकरण विद्वान् तथा नैरुक्त प्राचार्यों में गार्ग्य इस सिद्धान्त के विरोधी थे । द्र० - "न सर्वाणि ( नामानि श्राख्यतजानि ) इति गार्यो वैयाकरणानां चैके” (निरुक्त १.१२ ) । पतंजलि के महाभाष्य ( ३.३.१ ) में उद्धत निम्न कारिका से भी इस सिद्धान्त विषयक उपर्युक्त स्थिति का संकेत मिलता है नाम च धातुजम् श्राह निरुक्ते व्याकररणे शकटस्य च तोकम् । घायं पाणिनि मध्यम मार्ग के अनुयायी हैं । इसलिये उन्होंने इस दृष्टि से भी, मध्यम मार्ग का ही अनुसरण किया है। आचार्य पाणिनि के व्याकरण -सम्प्रदाय में 'प्रातिपादिकों' को कहीं 'व्युत्पन्न' अर्थात् 'धातुज' अथवा 'यौगिक' माना जाता है तो कहीं 'अव्युत्पन्न' अर्थात् रूढि । इसीलिये " उणादयो व्युत्पन्नानि प्रातिपदिकानि" तथा “उणादयोऽव्युत्पन्नानि प्रातिपदिकानि" ये दोनों तरह की परिभाषायें प्रतिष्ठित हो सकीं। ( द्र० - परिभाषेन्दुशेखर, परिभाषा सं० २२ ) । यहां 'उणादयः' का तात्पर्य है उणादि सूत्रों से निष्पन्न होने वाले रूढ़ि शब्द । “उणादयो व्युत्पन्नानि प्रातिपदिकानि " इस परिभाषा के अनुसार, अथवा श्राचार्य शाकटायन के मत की दृष्टि से, सभी शब्दों को धातु से उत्पन्न मानते हुए नागेश ने यहां 'धातुओं को सभी शब्दों का मूल ' कहा है । १. ह० - मूलभूत | For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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