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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्फोट-निरूपण १०३ 'शब्दनानात्ववाद' की पृष्ठभूमि में प्रस्तुत किया। यहां यह ध्यान देने योग्य है कि, वाक्यपदीय की अन्य अनेक कारिकाओं के समान, इस कारिका को भी भट्टो जी दीक्षित ने अपनी, व्याकरण सम्बन्धी, कारिकाओं में समाविष्ट कर लिया है । वैभूसा० में इस कारिका की उपक्रमणिका में कौण्डभट्ट ने स्पष्टतः कहा है-"इदानीम् अखण्डपक्षम् आह -- “पदे न वर्णा विद्यन्ते०" (द्र०-वैभूसा०, पृ० ४६१) । [ कत्व', 'गत्व' प्रादि का स्फोट में प्राभास तथा उसका कारण] किं च व्यंजक-ध्वनि-गत'-कत्व-गत्वादिकं स्फोटे भासते । विम्ब-गत-धर्म-वैशिष्ट्येनैव प्रतिविम्बस्य लोकेऽवधारणात्। व्यंजक-रूषितस्यैव' स्फटिकादेर् भानाच्च । यथा चैकस्य अाकाशस्य 'घटाकाशः', 'महाकाशः' इत्यौपाधिको भेदः, यथा चैकस्यैव चैतन्यस्य औपाधिको जीवेश्वरभेदो जीवानां च परस्पर-भेदः, एवं स्फोटे व्यंजक-ध्वनि-गत-कत्व-गत्वादि-भानात् ककारो बुद्ध इत्यौपाधिको भेद-व्यवहारः । 'प्रौपाधिको भेदः' इत्यत्र उपाधिः घट-कत्वादिर्* भिन्नः,उपधेयस् तु आकाश-स्फोटादिर् एक एव इति तात्पर्यम् । पद-वाक्योः सखण्डत्व-पक्षे त्वन्तिम-वर्ण-व्यंग्य: स्फोट एक एव । पूर्व-पूर्व-वर्णस्तु तात्पर्य-ग्राहकः । न्याय-नये 'चित्रगुः' इत्यादौ चित्रादिपदवत् । इसके अतिरिक्त व्यंजक ध्वनि के कत्व, गत्व, आदि (धर्म) स्फोट में प्राभासित होते हैं क्योंकि लोक में विम्ब (व्यंजक) के धर्म-विशेष के साथ ही प्रतिविम्ब (व्यंग्य) का ज्ञान होता है तथा व्यंजक (के रूप) से युक्त स्फटिक का बोध होता है। और जिस प्रकार एक आकाश के 'घटाकाश' तथा 'महाकाश' आदि औपाधिक (विशेषण-कृत) भेद होते हैं तथा जिस प्रकार एक चैतन्य के उपाधिकृत जीव और ईश्वर तथा जीवों के (शरीर-रूप उपाधि१. ह.-ध्वनिगतम् । २. ह.-अवधारणानुभवात् । है.- व्यंजकरूपरूपिकस्यैव । वंभि०-व्यंजकरूषरूषितस्यैव । ह.-उपाधिघटकत्वादिभिन्नः । वंमि०-उपाधिः कत्वादिभिन्न-- निस०-उपाधिः कत्वाविभिन्न For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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