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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०४ वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा कृत) पारस्परिक भेद होते हैं, इसी प्रकार 'स्फोट' में भी, (उसके) व्यंजक ध्वनि कत्व, गत्व आदि धर्मों का ज्ञान होने के कारण, 'ककार का बोध हुमा' इस प्रकार का उपाधिकृत भेद-व्यवहार होता है । 'औपाधिक भेद है' इसका तात्पर्य यह है कि 'उपाधियाँ' ('घटाकाश' को दृष्टि से) घट तथा ('क' रूप 'स्फोट' की दृष्टि से) कत्व, आदि भिन्न भिन्न हैं । परन्तु उपधेय (व्यंग्य) 'आकाश' तथा 'स्फोट' आदि तो एक ही हैं। पद तथा वाक्य के सखण्डत्व पक्ष में तो (शब्दों के) अन्तिम बर्ण से व्यक्त होने वाला स्फोट एक ही है। पहले-पहले के वर्ण तो (अन्तिम वर्ण से व्यक्त होने वाले स्फोट के) उसी प्रकार तापर्य-ग्राहक हैं जिस प्रकार, न्याय दर्शन के सिद्धान्त के अनुसार, 'चित्रगुः' इत्यादि प्रयोगों में 'चित्र' आदि (अन्तिम 'गो' पद के अर्थ 'चित्र गौ का स्वामी' के) केवल तात्पर्य-ग्राहक हैं । यहां 'क' आदि वर्गों के धर्म 'स्फोट' में क्यों भासित होते हैं ? इसका उत्तर यह दिया गया है कि 'स्फोट' बिम्ब (व्यंग्य) है तथा 'क' आदि वर्णों की ध्वनि उसका प्रतिविम्ब (व्यंजक) है। व्यंजक 'का' धर्म व्यंग्य में आ ही जाता है, इसलिये व्यंजक 'क' आदि वर्णात्मक ध्वनियों के धर्म, कत्व प्रादि, से स्फोट का युक्त होना स्वाभाविक ही है। व्यंग्य तथा व्यंजक अथबा उपधेय और उपाधि के दो और उदाहरण देकर इस बात की पुष्टि की गयी है । वे उदाहरण हैं ~~'आकाश' तथा 'चैतन्य' । एक ही आकाश अपनी उपाधि 'घट' आदि के कारण उन-उन धर्मों से युक्त होकर भिन्न-भिन्न भासने लगता है । परन्तु वस्तुतः वह एक है। एक ही चैतन्य के, शरीर तथा सम्पूर्ण जगत् इन दो उपाधियों के कारण, जीव तथा ईश्वर ये दो भेद हो जाते हैं । परन्तु इन उपाधियों में संक्रान्त होने वाला चैतन्य वस्तुतः एक ही माना जाता है । इसी प्रकार एक ही 'स्फोट', अनेक 'क' आदि उपाधियों के कारण, 'कत्व' आदि अनेक रूपों में विभक्त सा प्रतीत होता है। पदवाक्ययोः सखण्डत्वपक्षे-ऊपर शक्ति-निरूपण के प्रारम्भ में ही 'स्फोट' के आठ भेद दिखाये गए हैं । वहां 'पदस्फोट' तथा 'वाक्यस्फोट' के पहले दो विभाग किये गये हैं'पदव्यक्तिस्फोट' तथा 'पदजातिस्फोट', 'वाक्यव्यक्तिस्फोट' तथा 'वाक्यजातिस्फोट' । 'जाति' अखण्ड मानी गयी है, इसलिये उसमें अखण्ड तथा सखण्ड भेद नहीं किये गये । परन्तु ‘पदव्यक्तिस्फोट' तथा 'वाक्यव्यक्तिस्फोट' में खण्ड की कल्पना हो सकती है, इसलिये इनके पुनः दो भेद किये गये-'सखण्डपदव्यक्तिस्फोट' तथा 'अखण्डपदव्यक्तिस्फोट' और इसी प्रकार 'सखण्डवाक्यव्यक्तिस्फोट' तथा 'पाखण्डवाक्यव्यक्तिस्फोट'। इस सखण्ड विभाग की दृष्टि से ही 'स्फोट' की एकता का प्रतिपादन नागेश यहां की अन्तिम पंक्तियों में कर रहे हैं। न्यायनये 'चित्रगुः' इत्यादौ चित्राविपदवत्-वैयाकरण विद्वान् समास में शक्ति मानते हैं । उनकी दृष्टि में 'राजपुरुषः' या 'चित्रगुः' एक समस्त एवं अविभाज्य शब्द है तथा 'राजा का पुरुष' या 'चितकबरी गाय वाला प्रादमी' ये अर्थ पूरे, अविभक्त For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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