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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०२ वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा ओर न एक वाक्य की। फिर ऐसी अवस्था में किसको अर्थ का वाचक माना जायगा (द्र०-बाप० २. २८-२९)। इसलिये वैयाकरण न तो शब्द को विभक्त मानना है और न अर्थ को। ___ 'पदे न वर्णा विद्यन्ते०' इस कारिका को वाक्यपदीय को स्वौपज्ञ टीका में जिस रूप में प्रस्तुत किया गया है उससे यह स्पष्ट प्रतीत होता हैं कि इस कारिका में 'शब्दनानात्व', अर्थात् वर्ण, पद तथा वाक्य तीनों ही पृथक् पृथक् हैं, तीनों ही सत्य हैं, तीनों में अवयव-अवयवी की स्थिति स्वीकार्य नहीं हैं, के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है। क्योंकि इस कारिका की व्याख्या से पूर्व, पदभेदेऽपि वर्णानाम् एकत्वं न निवर्तते । वाक्येषु पदम् एकंञ्च भिन्नेष्वप्युपलभ्यते । न वर्ण-व्यतिरेकेण पदम् अन्यच्च विद्यते । वाक्यं वर्ण-पदाभ्यां च व्यतिरिक्तं न किंचन ॥ (वाप० १.७१-७२) इन दो कारिकामों में, 'शब्दकत्ववाद' को प्रस्तुत करते हुए यह कहा गया कि, गौ, गवय, गगन आदि पदों के भिन्न भिन्न होने पर भी गकार आदि वर्ण एक हैं यह प्रतीति होती ही है। इसलिये भिन्न पदों में भी वर्गों की एकता स्थित रहती है । तथा इसी तरह, 'गाम् पानय', 'गां दोग्धि' इत्यादि, भिन्न भिन्न वाक्यों में 'गो' आदि पदों की एकता का ज्ञान भी बना ही रहता है । इसलिये, भिन्न भिन्न वाक्यों में विद्यमान वे वे पद भी एक ही हैं। इस प्रकार वर्णो तथा पदों की एकता के सिद्ध हो जाने पर वर्ण ही पद हैं तथा पद ही वाक्य हैं। इसलिए वणं तथा पद से कुछ अतिरिक्त (अधिक) वाक्य नहीं है। पद वर्ण से अधिक (भिन्न) नहीं है किन्तु वर्ण ही पद हैं तथा वाक्य वर्ण और पद से अधिक कुछ नहीं है। इस रूप में 'एकत्ववाद' के सिद्धान्त का प्रतिपादन कर देने के उपरान्त 'अपर आह' कह कर स्वोपज्ञटीकाकार ने “पदे न वर्णा विद्यन्ते"० कारिका को प्रस्तुत किया है जिससे यह स्पष्ट है कि वे इस कारिका में 'शब्दनानात्ववाद' के सिद्धान्त का प्रतिपादन मानते हैं। परन्तु नागेश ने यहाँ स्फोटकत्ववाद के जिस प्रसंग में इस कारिका को उद्धृत किया हैं उससे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि वे इस कारिका को भी 'शब्दकत्ववाद' का ही प्रतिपादक मानते हैं। वस्तुतः नागेश को यहाँ यह कारिका उद्धृत न करके उपरि निर्दिष्ट "पदभेदेऽपि वर्णानाम्०" तथा "न वर्णव्यतिरेकेण०" कारिकाओं को उद्धत करना चाहिए जिनमें, वाक्यपदीय की स्वोपज्ञ टीका के अनुसार, 'शब्दकत्ववाद' का प्रतिपादन किया गया है। ऐसा अनुमान किया जा सकता है कि नागेश भट्ट ने भट्टो जी दीक्षित के वैयाकरण सिद्धान्त कारिका तथा, उसकी कोण्डभट्ट द्वारा विरचित व्याख्या, वैयाकरणभूषण से प्रभावित होकर ही भर्तृहरि की "पदे न वर्णा विद्यन्ते०" कारिका को For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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