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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्फोट-निरूपण १०१ नाद से व्यक्त होने वाला स्फोट 'वाक्यस्फोट' है । व्यङ्ग्य में व्यंजक का धर्म आभासित होता है तथा उपधेय में उपाधि की विशेषता संक्रान्त हुई प्रतीत होती है । जैसे-लाल अथवा पीले जपा आदि के फूलों (उपाधि) की लालिमा, पीतिमा से उपरक्त सफेद स्फटिक (उपधेय) भी लाल, पीला आदि दिखाई देने लगता है। इस विषय में भर्तृहरि की निम्न कारिका द्रष्टव्य है यथा रक्तगुणे तत्त्वं कषाये व्यपदिश्यते । संयोगि-सन्निकर्षात् तु वस्त्रादिष्वपि गृह्यते ॥ (वाप० ३.१.७) जिस प्रकार लाल गण में रहने वाली लालिमा का प्रयोग लाल गुणयुक्त कषाय रूप द्रव्य के लिये, 'यह लाल है' इस रूप में, किया जाता है, उसी प्रकार 'संयोगी' (कषायभूत द्रव्य) के 'सन्निकर्ष' (सम्बन्ध) से वस्त्र आदि में भी रक्तता धर्म की प्रतीति होती है। तो जिस प्रकार रक्त द्रव्य गेरु आदि के विषय में 'यह लाल है' इस प्रकार का प्रयोग किया जाता है तथा कषायभूत द्रव्य के सम्बन्ध से वस्त्र को लाल कह दिया जाता है उसी प्रकार 'स्फोट' में भी, अभिव्यंग्य तथा अभिव्यंजक के सम्बन्ध के कारण, वर्ण, पद तथा वाक्य का व्यवहार होता है। व्यंजक या 'उपाधि' का धर्म व्यंग्य या उपधेय में प्रतिविम्बित होता है इस कथन के पोषण के लिये दूसरा उदाहरण यहां मणि, कृपाण प्रादि का दिया गया है । जिस प्रकार व्यङ्ग्य मुख व्यञ्जक मरिण में, उसकी गोलाई के कारण, गोल दिखाई देता है तथा कृपाण में, उसकी लम्बाई के कारण, लम्बा दिखाई देता है उसी प्रकार व्यङ्ग्य 'स्फोट' में व्यंजक वर्ण आदि के धर्मों के प्रतीति होती है। भर्तृहरि के नाम से वैयाकरणभूषण (LXVI, पृ० २५२) में उद्धत निम्न कारिका में इसी उदाहरण को प्रस्तुत किया गया है : यथा मणि-कृपाणादौ रूपम् एकम् अनेकधा । तथैव ध्वनिषु स्फोट एक एव विभिद्यते ॥ उपाधि -'उप-समीपतिनि स्वीयं धर्मम् आदधाति इति उपाधिः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार व्यंजक को ही यहां 'उपाधि' से विशेषित किया गया है क्योंकि व्यञ्जक अपने धर्म का प्राधान व्यङ्ग्य में करता ही है। पदे न वर्णा विद्यन्ते०-भर्तृहरि आदि वैयाकरण न तो वाक्य में पदों की सत्ता मानते है और न पदों में वर्षों की। भर्तृहरि का कहना है कि यदि पदों के समुदाय को तथा वर्गों के समुदाय को क्रमशः वाक्य तथा पद माना गया तो वर्गों में भी, अणु में परमाणु के समान, विभिन्न वर्णाशों या खण्डों की सत्ता माननी होगी तथा इन खण्डों के क्रमशः उच्चरित होने, और इस रूप में एक साथ न उपस्थित होने तथा एक दूसरे से असंस्पृष्ट रहने के कारण न तो एक वर्ण की स्थिति सम्भव होगी, न एक पद की For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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