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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री-वीरवर्धमानचरिते [६.१६० चकार महती पूजा नमस्कारपुरःसराम् । तत्रार्हता सुबिम्बानां भक्तिभारवशीकृतः ॥१६॥ सकल्पमात्रसंजातैर्दिव्यैरष्टविधार्चनैः । तोयादिफलपर्यन्तैर्गीतवाद्यस्तवादिमिः ॥१६॥ ततोऽभ्यर्च्य जिनार्चाश्व चैत्यपादपसंस्थिताः । तिर्यग्नुलोकनाकस्था गत्वा भक्त्या सुरेश्वरः ॥१६२॥ नत्वा प्रपूज्य तीर्थेशगणेशादिमुनीश्वरान् । श्रुत्वा तेभ्यः स्वतत्वादीन्महाधर्ममुपार्ज यत् ॥ १६३॥ तस्मादेत्य निजं स्थानं स्वधर्मजनितां पराम् । विभूति विविधां सर्वा स्वीचक्रे सोऽमरार्पिताम् ॥१६॥ त्रिकरोच्चातिदिव्याङ्गधरो नेत्रप्रियो महान् । स्वेदधातुमल तीतो नयनस्पन्दवर्जितः ॥१६५॥ षट्प्रमावनिपर्यन्तान् रूपिद्रव्यांस्त्रिधात्मकान् । जानन् स्वावधिबोधेन विक्रियर्द्धिप्रभावतः ।।१६६॥ गमनागमनं कर्तुं क्षमः क्षेत्रे स्वचित्समे । द्वाविंशत्यब्धिमानायुर्विश्वाभरणभूषितः ॥१६७॥ द्वाविंशतिसहस्राब्दैर्गतैः सर्वाङ्ग-तृप्तिदम् । दिव्यं सुधामयाहारमाहरन्मनसोर्जितम् ॥१६८॥ एकादशप्रमैर्मासैनिष्कान्तैश्च भनाग्मजन् । सुगन्धिदिव्यमुच्छ्वासं सुरमीकृतदिक्चयम् ॥१६९।। पञ्चकल्याणकान्येव तीर्थेशां भक्तिनिर्मरः । शेषकेवलिनां कुर्वन् कल्याणद्विकमन्वहम् ॥१७॥ स्वकीयं वर्धयन् धर्म महा_दिमहोत्सवैः । सर्वदेनार्चितायब्जो धर्मकर्माग्रणीमहान् ॥१७॥ महादेवीमिरेवासौ साध क्रीडादिकोटिभिः । सुखं मनःप्रवीचारमवं त्यक्तोपमं महत् ॥१७२॥ भुञ्जानः परमानन्दसुखसागरमध्यगः । आस्ते तत्राच्युताधीशः कृत्स्नामरनमस्कृतः ॥१७३॥ वहाँपर उसने भक्ति-भावसे नम्रीभूत होकर अर्हन्तोंके प्रतिबिम्बोंका नमस्कारपूर्वक महापूजन संकल्पमात्रसे उत्पन्न हए जलादि-फल पर्यन्त आठ प्रकारके दिव्य दव्योंसे गीत. नत्य, वाद्य. स्तवनादिके द्वारा की ।।१६०-१६१॥ तत्पश्चात् चैत्य वृक्षोंके नीचे विराजमान जिनप्रतिमाओंको पूजकर वह देवेन्द्र भक्तिके साथ तिर्यक्लोक, मनुष्यलोक और देवलोकमें स्थित कृत्रिम-अकृत्रिम चैत्यालयोंकी वन्दनाके लिए गया और तीर्थंकर गणधर आदि मुनीश्वरोंको नमस्कार-पूजन कर और उनसे धर्म-तत्त्वको सुनकर उसने महान् धर्म उपार्जन किया ॥१६२-१६३॥ ____ तत्पश्चात् वहाँसे वापस अपने स्थान पर आकर अपने पुण्यसे उत्पन्न और देवों द्वारा समर्पित नाना प्रकारकी सर्व विभूतिको उसने स्वीकार किया ॥१६४॥ वह इन्द्र तीन हाथ उन्नत अति दिव्य देहका धारक, नेत्रोंको अतिप्रिय, स्वेद-धातु आदि सर्व मलोंसे रहित और नेत्र-टिमकारसे रहित था ॥१६५।। छठी पृथिवी तकके तीन प्रकारके रूपी द्रव्योंको अपने अवधि-ज्ञानसे जानता हुआ वह देव अवधिज्ञान प्रमाण क्षेत्रमें विक्रिया ऋद्धिके प्रभावसे गमनागमन करनेमें समर्थ था, बाईस सागर प्रमाण आयु थीं और सब उत्तम आभरणोंसे भूषित था ॥१६६-१६७।। बाईस हजार वर्ष बीतनेपर सर्वांगको तृप्त करनेवाला अमृतमय दिव्य आहार मनसे ग्रहण करता था ।।१६८॥ ग्यारह मास बीतनेपर दिमण्डलको सुरभित करनेवाला सुगन्धिवाला दिव्य उच्छ्वास नाममात्रको लेता था ॥१६९॥ भक्तिसे भरा हुआ वह अच्युतेन्द्र तीर्थंकरोंके पंच कल्याणकोंको, एवं शेष केवलियोंके ज्ञान-निर्वाण इन दो कल्याणकोंको निरन्तर करता हुआ महापूजनादिके महोत्सवों द्वारा अपने धर्मको बढ़ाता था, सर्व देवोंसे पूजित हैं चरण-कमल जिसके ऐसा धर्म-कार्यमें अग्रणी वह महान देवेन्द्र अपनी महादेवियोंके साथ कोटि प्रकारके क्रीड़ा-कौतूहलादिसे खेलता मनःप्रवीचारजनित अनुपम महान् सुखको भोगता था ॥१७०-१७२।। इस प्रकार सर्वदेवोंसे नमस्कृत अच्युत स्वर्गका स्वामी वह देवेन्द्र वहाँपर परम आनन्दरूप सुख-सागरके मध्यमें निमग्न रहने लगा ॥१७३॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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