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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६१ ६.१५९] षष्ठोऽधिकारः एता विभूतयो दिव्या अन्याश्च विविधाः पराः । नाथ तेऽद्भुतपुण्येन संमुखीभावमागताः ।।१४५॥ समग्रस्वर्गराज्यस्य मव स्वामी स्वमद्य च । गृहाण सकला भूतीनिरौपम्याः स्वपुण्यतः ॥१४६॥ इत्यादि तद्वचः श्रुत्वाथावधिज्ञानमञ्जसा । तेन प्राग्भववृत्तादीन् ज्ञात्वा भूत्वा परायणः ॥ ५४७॥ धर्मे जिनोक्तमार्गे च साक्षाद् दृष्टफलः सुधीः । अच्युतेन्द्र उवाचेदं वचः प्राग्भवसूचकम् ।।१४।। अहो मया पुरा घोरं कृतं सर्व तपोऽनघम् । ध्यानाध्ययनयोगाद्याः शुभाः कातरमीतिदाः ॥१४९॥ आराधिता जगत्पूज्याः सुपञ्चपरमेष्ठिनः । रत्नत्रयं त्रिशुद्धयामा पृतं भावनया परम् ॥१५॥ निर्दग्धं विषयारण्यं स्मरखाचरयो हताः । कषायरिपवः सर्वे निर्जिताश्च परीषहाः ॥१५॥ दशलाक्षणिको धर्मः सर्वशक्त्या पुरा मया। अनुष्ठितस्ततस्तेनात्राहं संस्थापितः पदे ॥१५२॥ अथवा स्वर्गसाम्राज्यमिदं कृत्स्नं गतोपमम् । धर्मस्यैव फलं मन्ये विपुलं विश्वशमदम् ।।१५३॥ अतो धर्मसमो बन्धुर्नान्यो लोकत्रये क्वचित् । धर्मस्त्राता भवाम्भोधेर्धर्मः सर्वार्थसाधकः ॥१५४॥ सहगामी नृणां धर्मो धर्मः पापारिहिंसकः । धर्मः स्वर्मुक्तिदाता च धर्मो विश्वसुखाकरः ॥१५५।। इति मत्वा बुधैः कार्यः सर्वावस्थासु सर्वदा । शर्मार्थिभिः परो धर्मों निर्मलाचारकोटिभिः ॥१५६॥ अहो वृत्तेन येनैष जायते सकलो महान् । तत्रात्र लभ्यते जातु ततोऽद्याहं करोमि किम् ॥१५७।। दृक्शुद्धिरथवैका मेऽत्रास्तु धर्मादिसिद्धये । भक्तिः श्रीजिननाथानां तन्मूर्तीनां परार्चना ॥१५॥ इत्युक्त्वा स्नानवाप्यां स स्नात्वा धर्मार्जनाय च । अकृत्रिमं जिनागारं ययौ देवाङ्गनावृतः ।।१५९।। परिषद्में सौ देवियाँ हैं ॥१४४॥ हे नाथ, ये सब दिव्य विभूति और अन्य अनेक प्रकारकी सम्पदा आपके अद्भुत पुण्यसे आपके सम्मुख उपस्थित हैं ॥१४५॥ हे नाथ, आज आप अपने पुण्यसे इस समस्त स्वर्गके राज्यके स्वामी हो और इस समस्त अनुपम विभूतिको ग्रहण करो ॥१४६।। ____ इस प्रकारसे उस सचिव देवके वचनोंको सुन करके और तत्काल उत्पन्न हुए अवधिज्ञानसे पूर्वभवके वृत्तान्तको जानकर धर्ममें तत्पर होता हुआ वह बुद्धिमान् अच्युतेन्द्र साक्षात् पुण्यके फलको देखकर पूर्वभव-सूचक यह वचन बोला ॥१४७-१४८।। अहो, मैंने पूर्वभवमें सर्व प्रकारका निर्दोष घोर तप किया है, कायरजनोंको भय देनेवाले शुभ ध्यान, अध्ययन और योगादि किये हैं, जगत्पूज्य पंचपरमेष्ठीकी आराधना की है, विशुद्ध भावनाके साथ परम रत्नत्रयधर्मको धारण किया है, इन्द्रियोंके विषयरूप वनको जलाया है, कामदेव रूप शत्रुको मारा है, कषायरूप शत्रुओंका दमन किया है, सभी परीषहोंको जीता है और पूर्ण सामर्थ्य से मैंने पहले क्षमादि दश लक्षणवाले धर्मका परिपालन किया है उसीने मुझे यहाँ इस पदपर स्थापित किया है ॥१४९-१५२॥ अथवा उपमा-रहित और सर्वसुखदायक यह समस्त स्वर्गका विशाल साम्राज्य धर्मका ही फल है, ऐसा मैं मानता हूँ ॥१५३।। अतः तीनों लोकोंमें कहींपर भी धर्मके समान दूसरा कोई बन्धु नहीं है। धर्म ही संसार-समुद्रसे पार उतारनेवाला रक्षक है और धर्म ही सब अर्थका साधक है ।।१५४।। धर्म ही जीवोंका सहगामी है, धर्म ही पापरूप शत्रुका नाशक है, धर्म ही स्वर्ग-मुक्तिका दाता है और धर्म ही समस्त सुखोंकी खानि है। ऐसा समझकर सुखके इच्छुक ज्ञानी जनोंको चाहिए कि वे सभी अवस्थाओंमें सदा ही निर्मल आचरणोंसे परम धर्म का पालन करें ॥१५५-१५६॥ अहो, जिस चारित्रसे उस लोकमें और इस लोकमें यह सब महान् वैभव प्राप्त होता है उस चारित्र धर्मको पालन करनेके लिए आज मैं क्या करूँ ॥१५७॥ अथवा धर्म आदिकी सिद्धिके लिए एक दर्शनविशुद्धि ही मेरे यहाँ पर होवे, तथा श्री जिननाथोंकी भक्ति और उनकी मूर्तियोंका परम पूजन ही करूं ? ऐसा कहकर और स्नान-वापिकामें स्नान करके देवांगनाओंसे घिरा हुआ वह अच्युतेन्द्र धर्मोपार्जनके लिए अपने अकृत्रिम जिनालयमें गया ॥१५८-१५९।। For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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