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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६.१७५ ] षष्ठोऽधिकारः इति वृषपरिपाकादाप्य नाकामराज्यं सकलविभवपूर्ण सोऽन्वभूद् दिव्यभोगान् । सुरपतिरतिसारांश्चेति मत्वा मजध्वं शमदमयमयोगैर्धर्ममेकं सुदक्षाः ॥१७॥ धर्मश्चाचरितो मया सह जनैर्धर्म प्रकुर्वेऽनिशं धर्मेणानुचरामि वृत्तमतुलं धर्माय मूर्धा नमः । धर्माम्नापरमाश्रये शिवकृते धर्मस्य मार्ग भजे । धों मे दधतो मनोऽत्र हृदये हे धर्म तिष्ठान्वहम् ॥१७५॥ इति श्री-भट्टारकसकलकीतिविरचिते श्रीवीरवर्धमानचरिते नन्द-नृप तपोऽच्युतेन्द्रोद्भवविभूतिवर्णनो नाम षष्ठोऽधिकारः ।।६।। इस प्रकार धर्मके फलसे वह देवेन्द्र सर्ववैभवोंसे परिपूर्ण स्वर्गके उत्तम राज्यको प्राप्त कर सारभूत दिव्य महाभोगोंको भोगने लगा। ऐसा जानकर सुचतुर पुरुष शम, दम और योगसे एक धर्मको ही निरन्तर पालन करें ॥१७४॥ साथियोंके साथ मेरे द्वारा धर्म आचरण किया गया, मैं धर्मको नित्य करता हूँ, धर्मके द्वारा मैं अनुपम चारित्रका पालन करता हूँ, धर्मके लिए मस्तक नवाकर नमस्कार है, मैं धर्मसे भिन्न किसी अन्य वस्तुका आश्रय नहीं लेता हूँ, मोक्षकी प्राप्तिके लिए मैं धर्मके मार्गका सेवन करता हूँ, धर्म में अपने मनको लगानेवाले मेरे हृदयमें हे धर्म, तुम निरन्तर विराजमान रहो ॥१७॥ इस प्रकार भट्टारक श्री सकलकीतिविरचित श्री-वीरवर्धमानचरितमें नन्दराजाके तपका, अच्युतेन्द्रकी उत्पत्ति और वहाँको विभूतिका वर्णन करनेवाला छठा अधिकार समाप्त हुआ ।।६।। For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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