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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५.५८ ] पञ्चमोऽधिकारः क्रमतो वृद्धिमासाद्य कीर्तिकान्त्यङ्गभूषणैः । महान् भाति कुमारोऽसौ 'दिक्कुमार इवोर्जितः ॥४२॥ ततः सोऽध्यापकं जैनं प्राप्य धर्मार्थसिद्धये । पपाठ सुधिया सारां विद्या धर्मार्थसूचिनीम् ॥४३॥ यौवने तु महामण्डलेश्वरश्रीसमन्वितम् । पितुः पदं समाप्येष भुनक्ति सुखमुल्वणम् ॥४४॥ तदास्याद्भुतपुण्येन प्रादुरासन् स्वयं क्रमात् । चक्रादिसर्वरवानि निधयो नव चोर्जिताः॥४५॥ ततोऽसौ परया भूत्या षडङ्गबलवेष्टितः । भ्रान्त्वा षटखण्डभूभागं नरखेचरनायकान् ॥४६॥ आक्रम्य मागधादींश्च व्यन्तरेशान् सुहेलया । महिम्नेव वशे स्वस्य चक्रे चक्रादिसाधनैः ॥४७॥ तेभ्यः कन्यादिरत्नानि सारवस्तूनि चक्रभृत् । आदाय परया लक्ष्म्यालंकृतः सुरराजवत् ॥४८॥ निवृत्त्य लीलया स्वस्य पुरी सुरपुरीमिव । प्राविशत् खगमत्येन्द्रय॑न्तरेशैः समं मुदा ॥४९॥ अस्यासन् परपुण्येन खभूचरनृपात्मजा । षण्णवति-सहस्राणि रूपलावण्यखानयः ॥५०॥ राजानो मौलिबद्धा द्वात्रिंशत्सहस्त्रसंख्यकाः । नमन्त्यस्य पदद्वन्द्वं स्वमू ज्ञाविधायिनः ॥५१॥ चतुरशीतिलक्षाः स्युर्गजास्तुङ्गमनोहराः। तावन्तश्च रथा अष्टादशकोटितुरङ्गमाः ॥५२॥ चतुरशीतिकोव्यश्च शीघ्रगामिपदातयः । गणबद्धामरास्तस्य सहस्रषोडशप्रमाः ॥५३॥ अष्टादशसहस्रप्रमाम्लेच्छवसुधाभुजः । सेवन्ते तस्य पादाब्जौ नृविद्येशामराचितौ ॥५४॥ सेनापतिः स्थपत्याख्यः स्त्री हर्म्यपतिरेव हि । पुरोहितो गजोऽश्वो दण्डश्चकं चर्म काकिणी ॥५५॥ मणिश्छन्नमसिश्चेति रत्नानि स्युश्चतुर्दश । राज्यमोगाङ्गकर्तृणि रक्षितान्यमरैः प्रभोः ॥५६॥ पद्मः कालो महाकालः सर्वरत्वो हि पाण्डुकः । नैसर्षो माणवः शङ्खः पिङ्गलोऽमी शुभोदयात् ॥५७॥ निधयो नव संरक्ष्या देवैश्चक्रभृतो गृहे । भोगोपभोगवस्तूनि पूरयन्ति क्षयोज्झिताः ॥५॥ प्राप्त हुआ ॥४१-४२॥ पुनः जैन अध्यापकको प्राप्त होकर उसने धर्म और अर्थकी सिद्धिके लिए धर्म और अर्थको प्रकट करनेवाली सारभत विद्याको उत्तम बद्धि से पढा ॥४३॥ य अवस्थामें महामण्डलेश्वरकी राज्यलक्ष्मीसे युक्त पिताके पदको पाकर यह उत्तम सुखको भोगने लगा ॥४४|| तत्पश्चात् उसके अद्भत पुण्यसे स्वयं ही चक्र आदि सभी चौदह रत्न और उत्कृष्ट नवों निधियाँ क्रमसे प्रकट हुई ।।४५। पुनः षडंग सेनासे वेष्टित उसने भारी विभूतिके साथ पट्खण्ड भूभागपर परिभ्रमण करके मनुष्य और विद्याधरोंके स्वामियोंपर आक्रमण कर चक्र आदि साधनोंके द्वारा उन्हें जीता। तथा मागधादिक व्यन्तर देवोंको अपनी महिमासे ही क्रीडापूर्वक अपने वशमें कर लिया ॥४६-४७।। इस प्रकार उस चक्रवर्तीने उन राजा लोगोंसे कन्या आदि रत्नोंको और अन्य सारभूत वस्तुओंको लेकर उत्कृष्ट लक्ष्मीसे अलंकृत हो देवेन्द्रके समान लौटकर लीलासे स्वर्गपुरीके तुल्य अपनी पुरीमें विद्याधरेन्द्रों और व्यन्तरेन्द्रोंके साथ प्रवेश किया ॥४८-४९॥ इस प्रियमित्र चक्रवर्तीके परम पुण्यसे विद्याधर और भूमिगोचरी राजाओंसे उत्पन्न हुई, रूप और लावण्यकी खानि ऐसी छियानबे हजार रानियाँ थीं । बत्तीस हजार आज्ञाकारी मुकुटबद्ध राजा लोग अपने मस्तकोंसे इसके दोनों चरणोंको नमस्कार करते थे ॥५०-५१॥ उन्नत एवं मनोहर चौरासी लाख हाथी थे, चौरासी लाख ही रथ थे और अठारह करोड़ घोड़े थे ॥५२॥ चौरासी करोड़ शीघ्रगामी पैदल चलनेवाले सैनिक थे । सोलह हजार गणबद्ध देव, तथा अठारह हजार म्लेच्छ राजा लोग मनुष्य, विद्याधर और देवोंसे पूजित उसके चरणोंकी सेवा करते थे ॥५३-५४|| उस चक्रवर्ती सेनापति, स्थपति, गृहपति, पट्टरानी, पुरोहित, गज, अश्व, दण्ड, चक्र, चर्म, काकिणी, मणि, छत्र और खड्ग ये चौदह रत्न थे जो कि राज्य-सुख और भोगके करनेवाले थे, तथा देवोंसे रक्षित थे ॥५५-५६॥ पुण्यके उदयसे उस चक्रवर्तीके घरमें देवोंके द्वारा १. अ कुमारो सुरकुमार० । For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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