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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री-वीरवर्धमानचरिते [५.५९कोटीषण्णवतिः ग्रामा देशखेटपुरादयः । सौधायुधाङ्गमोगाद्याश्चक्रियोग्या विभूतयः ॥५५॥ निःशेषा अस्य विज्ञेया आगमोक्ताः सुखाकराः । जाता पुण्यप्रभावेण षट्खण्डप्रभवाः पराः ॥३०॥ इमामन्यां परां लक्ष्मी चासाद्य नृसुरार्चितः । दशाङ्गमोगवस्तूनि भुङ्क्तेऽसौ सुखमुल्वणम् ॥६१॥ धर्मात्सर्वार्थसंसिद्धिरात्कामसुखं महत् । तत्त्यागात्परधर्मेण मुक्तिश्च जायते सताम् ॥ ६२॥ मत्वेत्येष सुधीनित्यं मनोवाक्कायकर्मभिः । कृतायैः प्रेरणेश्चैकं विधत्ते धर्ममुत्तमम् ॥६३॥ ततोऽतिदृग्विशुद्धिं स निःशङ्कादिगुणोत्करैः । पालयेग्निरतिचाराणि व्रतानि झगारिणाम् ॥६॥ चतुःपर्वसु पापनान् कुरुते प्रोषधान् सदा । निरारम्भः शुभध्यानपरो मुक्त्यै यमीव सः ॥६५॥ कारयित्वा बहून् तुङ्गान् हेमरत्तैर्जिनालयान् । बह्वीर्जिनेन्द्र मूर्तीः प्रतिष्ठा तासां च भक्तितः ॥६६॥ स्वालये चैत्यगेहेषु सामग्रया परयान्वहम् । अर्चयेदहतां दिव्याः प्रतिमास्तद्गुणाय सः ॥६॥ ददाति मुनये दानं प्रासुकं विधिपूर्वकम् । कीर्तिपुण्यमहाभोगप्रदं भक्त्या हिताप्तये ॥६८ निर्वाणभूमितीर्थेशतद्विम्बगणियोगिनाम् । वन्दनार्चनभक्त्यर्थ व्रजेद्यात्रा स धर्मधीः ॥१९॥ शृणोति स्वजनैः साधं चाङ्गपूर्वाणि धीधनः । वैराग्याय द्विधा धर्म जिनेशगणभृद्धवनेः ॥७॥ स सामायिकमापन्नो ह्यहोरात्रकृताशुभम् । विवेकी क्षपयेन्नित्यं स्वनिन्दागर्हणादिकैः ॥७१॥ इत्याद्यैः स शुभाचारैः कुर्याद्धर्म स्वयं सदा । कारयेदुपदेशेन भृत्यस्वजनभूभृताम् ॥७२॥ संरक्षित पन, काल, महाकाल, सर्वरत्न, पाण्डुक, नैसर्प, माणव, शंख और पिंगल ये नौ निधियाँ थीं, जो कि सदा अक्षयरूप से भोग-उपभोगकी वस्तुओंको पूरती रहती थीं ॥५७-५८।। उस चक्रवर्तीके छियानबे करोड़ ग्राम, देश, खेट और नगर आदि थे । तथा चक्रवर्तीके योग्य ही राजप्रासाद, आयुध और शरीरके भोग आदि विभूतियाँ थीं ॥५९॥ इस प्रकार पुण्यके प्रभावसे षट्खण्डोंमें उत्पन्न हुई, सुखोंकी खानिरूप सभी आगमोक्त उत्कृष्ट विभूति उस चक्रवर्तीकी जानना चाहिए ॥६०॥ इस उपर्युक्त तथा अन्य भी उत्तम लक्ष्मीको पाकर देव और मनुष्योंसे पूजित वह चक्रवर्ती दशांगभोग वस्तुओंको और उत्कृष्ट सुखको भोगता था ॥६१॥ धर्मसे सर्व अर्थकी भले प्रकार सिद्धि होती है, अर्थसे महान् कामसुख प्राप्त होता है और उसके त्यागसे सज्जनोंको मुक्ति प्राप्त होती है । ऐसा समझकर वह बुद्धिमान् चक्रवर्ती मन, वचन, कायसे स्वयं ही नित्य उत्तम धर्म करता था, तथा प्रेरणा करके दूसरोंसे उत्तम धर्मका आचरण कराता था ॥६२-६३॥ इसके पश्चात् वह चक्रवर्ती अपने सम्यग्दर्शनकी विशुद्धिको निःशंकित आदि गुणोंके समुदायसे बढ़ाने लगा, श्रावकोंके व्रतोंको निरतिचार पालने लगा, मासके चारों पोंमें पापके विनाशक प्रोषधोपवासोंको सदा आरम्भ रहित और शुभध्यानमें तत्पर होकर मुक्ति-प्राप्तिके लिए साधुके समान करने लगा ॥६४-६५।। स्वर्ण-रत्नोंसे बहुत-से ऊँचे जिनालयोंको बनवा करके, तथा बहुत-सी जिनमुर्तियोंका निर्माण कराके और भक्तिसे उनकी प्रतिष्ठा कराके अपने घरमें तथा जिनालयोंमें विराजमान करके प्रतिदिन उत्कृष्ट सामग्रीसे उनके गुण प्राप्त करने के लिए वह चक्रवर्ती उन दिव्य प्रतिमाओंका पूजन करता था ॥६६-६७॥ मुनियोंके लिए आत्म-हितार्थ, भक्तिसे विधिपूर्वक कीर्ति, पुण्य और महाभोगप्रद प्रासुक दान देता था ॥६८|| वह धर्मबुद्धिवाला चक्रवर्ती निर्वाणभूमियोंकी, तीर्थंकरोंकी उनके प्रतिबिम्बोंकी, गणधर और योगिजनोंकी वन्दना, पूजन और भक्ति करनेके लिए यात्राको जाता था ॥६९।। वह बुद्धिमान् तीर्थकर देव और गणधरोंकी दिव्यध्वनिसे स्वजनोंके साथ अंग और पूर्वोको तथा वैराग्यके लिए मुनि-श्रावकके धर्मको सुनता था ॥७०।। वह विवेकी सामायिकको प्राप्त होकर दिन-रातमें किये गये अशुभ कार्योंको अपनी निन्दा-गर्हणा आदि करके नित्य क्षपित करता था ॥७१॥ इत्यादि शुभ आचारोंके For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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