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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४२ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री वीरवर्धमानचरिते [ ५.२७ ततः सद्धर्मसिद्ध्यर्थं गत्वा श्रीजिनमन्दिरे । चकार परमां पूजां विश्वाभ्युदयकारिणीम् ||२७|| जलाद्यष्टविधैर्द्रव्यैस्तत्रोत्पन्नइच्युतोपमैः । समं तूर्यनिकैर्मक्त्या स्तुतिस्तवनमस्कृतैः ||२८|| पुनस्तिर्य लोके च जिनमूर्तीर्जिनेशिनः । नत्वा प्रपूज्य तद्वाणीं श्रुत्वा सत्पुण्यमार्जयत् ||२९|| इति धर्मात्तचित्तोऽसौ चतुः करोन्नताङ्गमाक् । षोडशाब्धिप्रमायुकः शुभलेश्याः शुभाशयः ॥ ३० ॥ चतुर्थावनिपर्यन्तं मूर्तिवस्तुचराचरम् । जानन् स्वावधिना युक्तो विक्रियद्धिं च तत्समाम् ||३१|| गतैर्गृह्णन् सुधाहारं सहस्रवर्षषोडशैः । मजन् सुगन्धिमुच्छ्वासं पक्षैः षोडशभिर्गतैः ॥ ३२ ॥ प्राक्तपश्चरणोत्पन्नान् दिव्यान् भोगाननारतम् । स्वदेवीभिर्महामत्या भुञ्जानोऽनल्पशर्मदान् ||३३|| निरौपम्यान् नृलोकेऽस्मिन् धर्मध्यानपरायणः । मुदास्ते निर्जरस्तत्र निमग्नः सुखसागरे ||३४|| अथ सद्धातकीखण्डे द्वीपे पूर्वाभिधानके । विदेहे पूर्वसंज्ञेऽस्ति विषयः पुष्कलावती ||३५|| प्रागुक्तवर्णना तत्र नगरी पुण्डरीकिणी । महती शाश्वता दिव्या चक्रिभोग्या हि विद्यते ॥ ३६ ॥ पतिस्तस्याः सुमित्राख्यो नरेशोऽभूत् सुपुण्यवान् । राज्ञी तस्याभवद्म्या सुव्रताख्या व्रताङ्किता ||३७ ॥ महाशुक्रास आगत्य देवोऽतिदिव्यलक्षणः । प्रियमित्राभिधो जातस्तयोः पुत्रो जगत्प्रियः ॥३८॥ तत्पितास्य विभूत्यादौ कृत्वा तां जिनालये । महाभिषेकसत्पूजां विश्वाभ्युदय शर्मदाम् ॥ ३९ ॥ दत्वा दानानि बन्धुभ्योऽनाथवन्दिभ्य एव च । सुर्य त्रिककेत्वाद्यैर्व्यधाज्जातमहोत्सवम् ॥४०॥ द्वितीयाचन्द्रवद्विश्वजनतानन्दवर्धकः । सुरूपातिशयैर्योग्यैः पयःपानान्नवस्तुभिः ॥४१॥ गया ।।२५-२६।। तत्पश्चात् उत्तम धर्मकी सिद्धिके लिए श्री जिनमन्दिरमें जाकर समस्त लौकिक सुखोंकी सिद्ध करनेवाली परमपूजा, स्वर्ग में उत्पन्न हुए अनुपम जलादि, अष्टविध द्रव्योंसे भक्ति-द्वारा तीनों प्रकार के बाजों के साथ, स्तुति, स्तवन और नमस्कार पूर्वक की || २७-२८|| पुनः तिर्यग्लोक और मनुष्यलोकमें जिनेन्द्रोंकी जिनप्रतिमाओंकी पूजा करके नमस्कार कर और जिनराजोंकी वाणीको सुनकर ब्रह्मदेवने उत्तम पुण्यको उपार्जन किया ||२९|| इस प्रकार ह देव सदा धर्म में चित्त लगाकर अपना समय व्यतीत करने लगा । उसका शरीर चार हाथ उन्नत था, सोलह सागरोपम आयु थी, शुभलेश्या और शुभमनोवृत्ति थी ||३०|| चौथी पृथिवीतक अपने अवधिज्ञानसे सभी मूर्तिके चराचर वस्तुओंको जानता हुआ वहाँ तक की विक्रिया ऋद्धिकी शक्तिसे युक्त था । सोलह हजार वर्ष बीतने पर वह अमृत आहारको ग्रहण करता था, और सोलहपक्ष बीतनेपर सुगन्धित उच्छ्वास लेता था ।। ३१-३२ ।। पूर्वभव में किये गये तपश्चरण से उत्पन्न हुए, भारी सुख देनेवाले दिव्य भोगोंको महाविभूतिसे अपनी देवियोंके साथ निरन्तर भोगने लगा । वहाँके अनुपम भोगोंकी इस मनुष्य लोकमें कोई उपमा नहीं है । इस प्रकार वह देव आनन्दसे सुख- सागर में निमग्न रहने लगा ।।३३-३४।। । अथानन्तर उत्तम धातकीखण्ड द्वीपके पूर्व भागवर्ती पूर्व विदेहमें पुष्कलावती नामका देश है । वहाँ पर पूर्वोक्त वर्णनवाली पुण्डरीकिणी नगरी है जो विशाल, शाश्वती, दिव्य और चक्रवर्ती द्वारा भोग्य है || ३५-३६ || उस नगरीका स्वामी सुमित्र नामका अतिपुण्यवान् राजा था। उसकी व्रत-भूषित सुव्रता नामकी सुन्दरी रानी थी। उन दोनोंके महाशुक्र विमानसे आकर वह देव दिव्यलक्षणवाला, जगत्प्रिय, प्रियमित्र नामका पुत्र हुआ । जन्म होनेपर उसके पिताने भारी विभूतिके साथ सर्वप्रथम जिनालय में जाकर समस्त अभ्युदय सुखों को देनेवाली महाभिषेक पूर्वक उत्तम पूजा की || ३७-३९ || पुनः बन्धुजनोंको, अनाथों और वन्दी लोगोंको दान देकर तीन प्रकार के बाजोंके साथ ध्वजा आदि फहराकर पुत्रका जन्म महोत्सव मनाया ||४०|| वह बालक समस्त जनताके आनन्दको बढ़ाता हुआ, अतिशय सुन्दर रूपसे, योग्य दुग्ध-पान, अन्नाहार आदि वस्तुओंसे, कीर्ति, कान्ति और शरीरके भूषणोंसे द्वितीयाके चन्द्रमा समान वृद्धिको प्राप्त होकर दिक्कुमार या देवकुमारके समान अत्यन्त शोभाको For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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