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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५.२६ ] ४१ amanane पञ्चमोऽधिकारः श्रुतसागरनामानं योगीन्द्र श्रतपारगम् । आसाद्य शिरसा नवा त्रिःपरीत्य जगल तम् ॥१३॥ बाह्यान्तःस्थाखिलान् संगांखिशुद्धया प्रविहाय सः । मुमुक्षुर्मुक्तये जैनों दीक्षां मपो मुदाददौ ।।१।। ततः कर्माविघाताय तपोवज्रायुधं दधे । दुष्टाभारिमनोरोधि प्रशस्तं ध्यानमाचरत् ।।१५॥ एकाकी सिंहवन्नित्यं धर्मशुक्लप्रसिद्धये । कन्दराद्रिगुहारण्यश्मशानादिषु संवसेत् ॥१६॥ अटवीग्रामखेटादीन् विहरन् यत्र चांशुमान् । अस्तं याति स तत्रैव तिष्टेद् रात्रौ दयाधीः ॥१७॥ सदिसंकुले झंझावातवृष्टयादिदुःकरे । प्रावृट्काले हुमूले स विधत्ते योगमूर्जितम् ॥१०॥ हेमन्ते चत्वरे वासौ नदीतीरे हिमाकुले । ध्यानोष्मणा हताशेषशीतबाधाः स्थितिं भजेत् ॥१९॥ प्रीष्मे सूर्याशुसंतप्से पर्वताने शिलातले । कुर्याद् न्युत्सर्गमाहत्योष्णबाधां ज्ञानपानतः ॥२०॥ इत्याद्यन्यतरं घोरं कायक्लेशं सदा भजन् । बाह्यं सोऽभ्यन्तरे दक्षो ध्यानाध्ययनहेतवे ॥२१॥ गुणान् मूलोत्तरान् सर्वान् प्रतिपाल्य सुसंयमम् । आददेऽनशनं चान्ते त्यक्त्वाहारवपूंषि वै ॥२२॥ ततो दृग्ज्ञानचारित्रतपसां मुक्तिदायिनाम् । आराधनां विधायोः शोषयित्वा निजं वपुः ॥२३॥ तपोऽमिना परित्यज्य प्रागान् सर्वसमाधिना। तत्फलेन महाशुक्रे सोऽमन्महर्द्धिकोऽमरः ॥२४॥ तत्राप्यान्तर्मुहतेन सहजाम्बरमषणः । भूषितं यौवनान्यं स कायं धातुमलातिगम् ॥२५॥ महती स्वःश्रियं वीक्ष्यासाद्यावधिः स तत्क्षणम् । ज्ञात्वा प्राग्वृत्तकं तेन सर्व धर्मपरोऽजनि ॥२६॥ वह हरिषेण राजा घरसे निकला ॥१२॥ और श्रुत-पारगामी श्रुतसागर नामके योगीन्द्र के पास जाकर जगत्से नमस्कृत उन्हें शिरसे नमस्कार कर और तीन प्रदक्षिणा देकर, बाह्य और आभ्यन्तर समस्त परिग्रहोंको त्रिकरण-शुद्धिसे त्याग कर उस मुमुक्षु राजाने मुक्तिकी प्राप्तिके लिए हर्षके साथ दीक्षा ग्रहण कर ली ॥१३-१४॥ तत्पश्चात् कर्मरूपी पर्वतके विघातके लिए तपरूप वस्रायुधको उसने धारण किया। और दुष्ट इन्द्रिय और मनरूप शत्रुओंको रोकनेवाले उत्तम ध्यानको धारण किया ॥१५॥ वह धर्म और शुक्लध्यानकी सिद्धिके लिए पर्वतोंकी कन्दराओं, गुफाओंमें तथा वन-श्मशान आदिमें नित्य एकाकी सिंहके समान निर्भय होकर बसने लगा ॥१६।। अटवी, ग्राम, खेट आदिमें विहार करते हुए जहाँपर सूर्य अस्त हो जाता, वहींपर वह दयाई चित्त रात्रिमें ठहर जाता। वह वर्षाकालमें सर्प आदिसे व्याप्त, झंझावात और वर्षा आदिसे भयंकर वृक्षके मलमें उत्कृष्ट योगको धारण करता, हेमन्त ऋतमें हिमसे व्याप्त चतुष्पथपर अथवा नदीके किनारे ध्यानकी गरमीसे सर्व प्रकारकी शीतबाधाको दूर करता हुआ रहने लगा ॥१७-१९।। प्रीष्मकालमें सूर्यकी किरणोंसे सन्तप्त पर्वतके ऊपर शिलातलपर ज्ञानामृतके पानसे उष्णबाधाको दूर करता हुआ कायोत्सर्ग करता था ॥२०॥ इनको आदि लेकर अन्य अनेक बाह्य तपरूप कायक्लेशको वह चतुर मुनि आभ्यन्तर ध्यान और स्वाध्यायरूप तपोंकी सिद्धिके लिए सदा सहने लगा ||२१॥ इस प्रकार जीवन-भर सभी मूलगुणों, उत्तरगुणों और संयमको पालन कर अन्तमें आहार और शरीरको छोड़कर हरिषेणमुनि अनशनको ग्रहण कर लिया ॥२२॥ तत्पश्चात् मुक्तिकी देनेवाली दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन चारों आराधनाओंकी भली भाँतिसे आराधना कर और तपरूपी अग्निसे अपने शरीरको सुखा करके सर्व प्रकारकी समाधिके साथ हरिषेण मुनिने प्राणोंको छोड़कर उसके फलसे महाशुक्र नामके स्वगमें महधिक देवपद पाया ।।२३-२४॥ वहाँपर अन्तर्मुहूर्त मात्रसे ही सर्व धातुओंसे रहित, यौवन अवस्थासे युक्त और सहज वस्त्राभूषणोंसे भूषित दिव्य देह पाकर, तथा स्वर्गकी महती विभूतिको देखकर, तत्क्षण उत्पन्न हुए अवधिज्ञानसे पूर्व भव-सम्बन्धी सर्व वृत्तान्तको जानकर वह देव धर्ममें तत्पर हो For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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