SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 70
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३८ श्री-वीरवर्धमानचरिते [४.१२१ अथ जम्बूमति द्वोपे विषये कोशलाहये । अयोध्या नगरी रम्या विद्यते सज्जनै ता ॥१२१॥ वज्रसेनो नृपस्तस्याः पतिरासीच्छुभोदयात् । शीलवत्याह्वया तस्य कान्ताभूच्छीलशालिनी ।।१२२॥ सोऽमरो नाकतश्च्युत्वा हरिषेणाभिधः सुतः । दिव्यलक्षणपूर्णाङ्गस्तयोः पुण्यादजायत ।।१२३॥ सबन्धुभिः कृतं मत्या कृत्स्नं जातमहोत्सवम् । प्राप्य भोगोपमोगैश्च कौमारत्वं धियान्वितम् ॥१२॥ अधीत्य जैन सिद्धान्तसारार्थानस्त्रविद्यया । समं धर्मादिनिष्पत्त्यै जनतानन्दकारकः ॥२५॥ रूपलावण्यतेजोऽङ्गकान्तिदीप्यादिसद्गुणैः । दिव्यांशुकादिनेपथ्यैर्भूषितोऽमरवद् बमौ ।।१२६॥ ततोऽसौ यौवने वाप्य बह्वी राजसुताः शुभात् । पितुः पदं श्रियामाप्य भुनक्ति सुखमुल्वणम् ॥१२॥ साधं सदृग्विशुद्धया सद्ब्रतानि गृहमेधिनाम् । गार्हस्थ्यधर्मसिद्धयर्थ निःप्रमादेन पालयन् ।।१२८॥ अष्टम्यां च चतुर्दश्यां त्यक्त्वा सावद्यमञ्जसा । भूत्वा मुनिसमो धीमान् मुक्त्यै प्रोषधमाचरन् ।।१२९॥ उत्थाय शयनात्प्रातः सामायिकस्तवादिकान् । प्रयत्नेन विधत्ते स आदी धर्मप्रवृद्धये ॥१३॥ पश्चाद्देवार्चनं भूत्या स्वगृहे जिनधामनि । धौताम्बरधरो भक्त्या त्रिवर्गसिद्धिदं मजन् ।।१३१॥ योग्यकाले सुपात्राय दत्ते दानं यथाविधि । प्रासुकं मधुरं दक्षः साक्षाद्भावनया यथा ॥१३२॥ अपराह्ने स्वयोग्यानि सत्कर्माणि शुमाप्तये । सामायिकादिसर्वाणि करोति जितमानसः ॥१३३॥ प्रस्वेदादिसे रहित दिव्य शरीरका धारक था, महान् सम्यग्दृष्टि, शुभध्यान और जिनपूजनमें निरत रहता था। सुख-कारक नृत्य, गीत और मधुर वादित्रोंके द्वारा दिव्य देवियोंके साथ निरन्तर महान् भोगोंको भोगता हुआ, चारित्रमें भावना करता हुआ, सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानरूप रत्नसे मण्डित तथा देवोंसे सेव्य, वह देवराज सुखरूप अमृतसागरमें मग्न रहता हुआ आनन्दसे रहने लगा ॥११६-१२०।। अथानन्तर इसी जम्बूद्वीपके कोशल नामक देशमें अयोध्या नामकी रमणीक नगरी है, जो सज्जनों से भरी हुई है। पुण्योदयसे उस नगरीका स्वामी वज्रसेन राजा था और शीलको धारण करनेवाली शीलवती नामकी उसकी रानी थी॥१२१-१२२।। उन दोनोंके स्वर्गसे च्युत होकर वह देव पुण्यसे दिव्य लक्षण-परिपूर्ण देहवाला हरिषेण नामका पुत्र उत्पन्न हुआ।१२३॥ राजाने अपने बन्धुजनोंके साथ बड़ी विभूतिसे उसका जन्ममहोत्सव एवं अन्य सभी मांगलिक विधि-विधान किये । क्रमशः भोगोपभोगोंके द्वारा बुद्धिमत्तासे युक्त उसने कुमारावस्थाको प्राप्त कर धर्मादि पुरुषार्थों की सिद्धिके लिए शस्त्रविद्याके साथ जैन सिद्धान्तके सारभूत तत्त्वार्थको पढ़कर, रूप, लावण्य, तेज, शरीर कान्ति और दीप्ति आदि सद्-गुणोंके द्वारा जनताको आनन्दित करता हुआ वह दिव्य वस्त्राभरण आदि वेष-भूषासे देवके समान शोभाको प्राप्त हुआ ॥१२४-१२६॥ __तत्पश्चात् यौवनावस्थामें पुण्योदयसे बहुत-सी राजकुमारियोंको प्राप्त कर और पिताकी राज्यलक्ष्मीके पदको पाकर वह उत्तम सुखको भोगने लगा ॥१२७।। पुनः सम्यग्दर्शनकी विशुद्धिके साथ गृहस्थोंके धर्मकी सिद्धिके लिए श्रावकोंके सद्-व्रतोंको प्रमादरहित होकर पालन करता, अष्टमी और चतुर्दशीको सर्व पापभोगोंका त्याग करके मुनि समान होकर वह बुद्धिमान मुक्ति-प्राप्तिके लिए प्रोषधोपवासको पालता और प्रातःकाल शयनसे उठकर सर्वप्रथम सामायिक, तीर्थंकरस्तवन आदि आवश्यकोंको प्रयत्नके साथ करता था। पश्चात् धर्मकी वृद्धिके लिए स्नान करके धुले हुए वस्त्र पहनकर भक्तिके साथ अपने घरके जिनालयमें जाकर विभूतिके साथ देव-पूजन करके योग्यकाल में योग्य सुपात्रके लिए त्रिवर्गकी सिद्धि करनेवाले प्रासुक मधुर दानको वह चतुर यथाविधि नवधा भक्तिके साथ साक्षात् स्वयं दान देता था ॥१२८-१३२॥ अपराह्नकालमें स्वयोग्य कार्योंको करके पुनः मनको जीतनेवाला वह हरिषेण राजा पुण्यकी प्राप्तिके लिए सायंकाल के समय सामायिक आदि सर्व धर्म-कार्योंको For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy