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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४. १४२ ] चतुर्थोऽधिकारः यात्रां व्रजति सोऽहं केवलियोगोन्द्रयोगिनाम् । संघेन महता साकं धर्मं तीर्थप्रवृत्तये ॥ १३४ ॥ तेभ्यः शृणोति सद्धमं तस्वाचारादिमिश्रितम् । रागहान्यै विदे भूपस्त्रिशुद्धया शर्मवारिधिम् ॥ १३५ ॥ वात्सल्यं कुरुते धर्मी धर्माय धर्मशालिनाम् । तद्योग्यदानसन्मानैः प्रीत्या तद्गुणरञ्जितः ॥ १३६ ॥ जिनचैत्यालयोद्धारैः प्रतिष्ठार्चादिकोटिभिः । जैनशासनमाहात्म्यं व्यनक्त्येष सदा सुधीः ॥ १३७ ।। यच्छक्रोति स पुण्यात्मा सर्वशक्त्या तदाचरन् । यन्न शक्नोत्यनुष्ठातुं विधत्ते तस्य भावनाम् ॥ १३८॥ इत्यादिविविधाचारैः कुर्वन् धर्मं गिरा हृदा । वपुषा कारयंश्चान्यैर्मन्यैः सदुपदेशनैः ॥ १३९ ॥ त्रिवर्गवृद्धिकृद्राज्यं पालयन् न्याय वर्त्मना । सोऽन्वभूत्परमान् भोगान् स्वपुण्योदयजान् सुधीः || १४० ॥ इति सुकृतविपाकात् प्राप्य सम्राज्यलक्ष्मी निरुपमसुखसारान् सोऽत्र भुके नरेशः । जगति विदितकीर्तिश्चेति मत्वा शिवाय मजत परमयत्राच्छर्मकामाः सुधर्मम् ॥ १४१ ॥ धर्मः प्राचरितो मया सुविधिना धर्मं भजे प्रत्यहं धर्मेणानुचरामि वृत्तममलं धर्माय नित्यं नमः । धर्मान्नापरमाश्रयामि शरणं धर्मस्य गच्छाम्यधाद् धर्मे लीनमना अहं भवभयान्मां पाहि धर्माधतः ।। १४२ ।। इति श्रीभट्टारकसकलकीर्तिविरचिते श्रीवीर - वर्धमानचरिते सिंहादिभवसप्तधर्मप्राप्तिवर्णनो नाम चतुर्थोऽधिकारः ||४|| ३९ करता था ॥१३३॥ धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति के लिए वह बड़े भारी संघके साथ अर्हन्त, केवली, गन्द्र और साधुओं के दर्शन बन्दनके लिए यात्राएँ करता था, उनसे तत्त्व और आचारादिसे मिश्रित अर्थात् द्रव्यानुयोग, चरणानुयोग आदि सर्व अनुयोगयुक्त सुखके सागर उत्तमधर्मको रागकी हानि और ज्ञानकी वृद्धिके लिए त्रियोगशुद्धिपूर्वक सुनता था ॥ १३४-१३५॥ यात्राओंसे लौटकर वह हरिषेण राजा धर्मके लिए धर्म-शालियोंका उनके गुणोंसे अनुरंजित होकर प्रीतिसे यथायोग्य दान-सम्मान के द्वारा साधर्मी वात्सल्य करता था । अर्थात् प्रीतिभोज देकर वस्त्राभूषणादिसे साधर्मी जनोंका यथोचित सम्मान करता था ॥ १३६ ॥ | वह बुद्धिमान् राजा प्राचीन जिन चैत्यालयोंका उद्धार करके तथा नाना प्रकारकी प्रतिष्ठा, पूजनादिके द्वारा सदा ही जैनशासन के माहात्म्यको जगत्में व्यक्त करता रहता था || १३७|| वह पुण्यात्मा जिस कार्यको कर सकता था, उस धर्मकार्यको सर्वशक्तिसे सदा आचरण करता और जिसे करने के लिए समर्थ नहीं होता, उस करने की भावना करता रहता था || १३८ || इत्यादि अनेक प्रकारके आचरणों से वह स्वयं धर्म करता, तथा मन, वचन और कायसे सदुपदेशोंके द्वारा अन्य भव्य जीवोंसे कराता हुआ त्रिवर्ग ( धर्म, अर्थ, काम ) की वृद्धि करनेवाले राज्यको न्यायमार्ग से पालन करता हुआ वह बुद्धिमान् राजा अपने पुण्योदयसे प्राप्त परम भोगोंको भोगने लगा ।। १३९-१४०॥ इस प्रकार पुण्यके परिपाकसे उत्तम राज्य लक्ष्मीको पाकर संसार में सर्व ओर जिसकी कीर्ति फैल रही है, ऐसा वह हरिषेण नरेश वहाँ पर सारभूत अनुपम सुखोंको भोगता हुआ समय व्यतीत करने लगा । ऐसा जानकर सुखके इच्छुक पुरुषोंको शिवपदकी प्राप्ति के लिए परम यत्न से उत्तम धर्मका सेवन करना चाहिए || १४१ || मैंने उत्तम विधि के साथ पहले धर्म आचरण किया है। मैं अब भी प्रतिदिन धर्मको सेवन करता हूँ, धर्म के द्वारा निर्मल चारित्रको पालता हूँ, ऐसे धर्मको मेरा नित्य नमस्कार है । धर्मसे अन्य किसी का मैं आश्रय नहीं लेता हूँ, किन्तु पापसे दूर रहकर धर्म की शरण जाता हूँ । भव भय से डरकर मैं धर्ममें मनको संलग्न करता हूँ । हे धर्म, मुझे पाप से बचाओ ॥१४२॥ For Private And Personal Use Only इस प्रकार भट्टारक सकलकीर्ति-विरचित श्री वीर - वर्धमानचरितमें सिंह आदि सात भवोंका और उनमें धर्मकी प्राप्तिका वर्णन करनेवाला चतुर्थं अधिकार समाप्त हुआ ||४||
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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