SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४.१२०] चतुर्थोऽधिकारः ततोऽसावार्तरौद्रध्यानदुर्लेश्या विहाय च । प्रयत्नेन शुभा धर्मशुक्ललेश्या भजन् सदा ॥१०५॥ विकथालापवार्तादीस्त्यक्त्वा धर्मकथाः पराः । सिद्धान्तपठनं कुर्वन् सतां धर्मापदेशनम् ॥१०६ सरागस्थानलोकादीनुत्सृज्य ध्यानसिद्धये । गहावनश्मशानाद्विनिर्जनेषु वसन सुधीः ॥१७॥ अटवीग्रामदेशादीन् विहरनिर्ममाशयः । द्विषभेदं तपोऽत्यर्थमाचरन् कमहानये ॥१०॥ इत्याद्यन्यत्प्रशस्तं च सर्वान् मूलगुणान् परान् । यत्याचारोतमार्गण प्रतिपाल्य च संयभम् ।।१०९॥ अनघं मृत्युपर्यन्तं चान्ते संन्यासमाददौ । हित्वा चतुर्विधाहारान् स्वाङ्गादी ममता मुनिः ।।१०॥ ततो जित्वातिधैर्येण क्षुत्तृषादिपरीषहान् । स्ववीर्य प्रकटीकृत्य मुक्तिश्रीसाधनोद्यतः ।। १११॥ आराध्याराधनाः सर्वाः प्रयत्नेन समाधिना । धर्मध्यानेन मुक्त्वासून् निर्विकल्पमना यतिः ॥१५॥ तपोव्रतार्जिता येन स्वर्ने लान्तवनामनि । महर्द्धिकोऽमरो जातोऽनेककल्याणमतिभाक ॥११३|| तत्स्वावधिना ज्ञात्वा प्राग्भवं तपसा फलम् । भूत्वा दृढमना धर्म पुनः श्रीधर्मसिद्धये ॥११४|| त्रिलोकस्था जिनेन्द्रार्चा अहं तो गणिना मुनीन् । चार्चयन् प्रणमन्नित्यं स्वर्जयन् पुण्यमूर्जितम् ॥१५॥ अयोदशसमुद्रायुः पञ्चहस्तोच्छुिताङ्गत् । प्रयोदशसहस्राब्दैः सुधाहारं हृदा मजन् ॥११॥ निःक्रान्तैः सार्धषण्मासैः सुगन्धिवपुरुच्छवसन् । तृतीयाधोधराव्याप्तावधिचिद्विक्रियान्वितः ॥1॥ सप्तधातुमलस्वेदातिगदिव्यशरीरभाक । सम्यग्दृष्टिः शुमध्यानजिन पूजारती महान् ॥११॥ नर्तनीतवाद्याद्यैर्मधुरै शर्मकारकैः । भुञ्जानो महतो भोगान् दिव्यदेवाभिरन्वहम् ।।११९॥ भावनां भावयन् वृत्ते दृष्टिचिगनमण्डितः । मुदास्ते सोऽमरैः सेव्यो मजान् शर्मामृताम्बुधौ ।। १२०॥ और मुक्तिके सुखोंकी जननी ऐसी सारभूत जिनदीक्षाको मुक्तिके लिए ग्रहण कर लिये ॥१०३-१०४॥ तत्पश्चात् वे सुज्ञानी कनकोज्ज्वल मुनि आर्त-रौद्रध्यान और दुर्लेश्याको छोड़कर, प्रयत्नके साथ शुभ धर्मध्यान और शुक्ललेश्या सदा धारण करते हुए, विकथालाप और निरर्थक बातचीतको छोडकर उत्तम धर्मकथा करते. सिद्धान्तशास्त्रोंको पढते, सज्जनोंको धर्मका उपदेश देते, सराग स्थान और सरागी पुरुषोंका संगम छोड़ते, ध्यानकी सिद्धिके लिए गुफा, वन, इमशान, पर्वत आदि निर्जन स्थानों में बसते, अटवी, आम, देशादिकमें ममत्वरहित चित्त होकर विहार करते हुए कर्मोंका नाश करनेके लिए अत्यन्त उग्र बारह प्रकारका तपश्चरण करने लगे ॥१८५-१०८|| इनको आदि लेकर अन्य प्रशस्त कर्तव्योंको तथा सभी उत्तम मूलगुणोंको यति-आचारोक्त मार्गसे पालकर, और मरण-पर्यन्त निर्दोष संयमको पालकर जीवनके अन्तमें उन्होंने संन्यासको धारण कर लिया। चारों प्रकारके आहारोंका और अपने शरीर आदिमें ममताका त्याग कर उन मुनिराज ने अतिधैर्यके साथ भूख, प्यास आदि परीषहोंको जीतकर एवं मुक्ति लक्ष्मीके साधनमें उद्यत हो अपने वीर्यको प्रकट कर सभी आराधनाओंकी प्रयत्नसे समाधिद्वारा आराधना कर, निर्विकल्पमन हो उन यतिराजने धर्मध्यानसे प्राणोंको छोड़ा और तपश्चरण एवं व्रत-पालनसे उपार्जित पुण्यके द्वारा वह लान्तव नामके स्वर्गमें अनेक. कल्याणयुक्त विभूतिका धारक महर्द्धिक देव हुआ ।।१८९-११३॥ वहाँ पर तत्काल उत्पन्न हए अपने अवधिज्ञानसे पर्व भव में किये गये तपका फल जानकर वह देव धर्म में दृढ़चित्त हो और भी श्रीधर्मकी सिद्धिके लिए तीन लोकमें स्थित जिनेन्द्रोंकी प्रतिमाओंकी तथा अन्तिों , गणधरों और मुनिजनोंका नित्य पूजन-नमन करते हुए उत्कृष्ट पुण्यका उपार्जन करने लगा ॥११४-११५।। वहाँ पर उसकी तेरह सागरोपम आयु थी, पाँच हाथ उन्नत शरीर था, तेरह हजार वर्षोंसे हृदय द्वारा अमृत-आहारको सेवन करता था, साढ़े छह मास बीतनेपर श्वासोच्छ्वास लेता था, सुगन्धित शरीर था, नीचे तीसरी पृथिवीतक व्याप्त अवधिज्ञान और इतनी ही विक्रिया करनेकी शक्तिसे सम्पन्न था, सप्तधातु, मल-मूत्र, For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy