SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३.१५०] तृतीयोऽधिकारः अर्थतस्य वियोगेन बलमद्रोऽतिपुण्यधीः । विश्वाङ्गभोगराज्यादौ विरक्ति प्राप्य सोऽअसा ॥१४॥ कृत्वा घोरतरं वेधा तपो ध्यानासिना ततः । कृत्स्नकर्मरिपून हत्वा लब्ध्वानन्तचतुष्टयम् ॥१४॥ देवार्चनीयं निर्वाणमनन्तसुखसागरम् । निरौपम्यं निराबाधं जगाम विश्ववन्दितम् ॥१४॥ इति सुचरणयोगाद् भुक्तभोगोऽपि चैकोऽगमदिह जगदग्र्यं सत्पदं बन्धुरन्यः । कुचरणविधिपाकादन्त्यपातालरन्धं चरत चरणसारं भो विदित्वेति दक्षाः ॥१४९॥ एतद्दुःखनिवारक शिवकरं कर्मारिविध्वंसकं ह्यन्तातीतगुणार्णवं मवहरं स्वर्मुक्तिशर्माकरम् । विश्वेशं शरणं जगत्त्रयसतां वन्यं च पूज्यं वरं वन्दे तद्गुणसिद्धयेऽन्तिमजिनं श्रीधर्मतीर्थङ्करम् ॥१५॥ इति श्रीभट्टारकसकलकीतिविरचिते वीरवर्धमानचरिते स्थूलभवचतुष्टयवर्णनो नाम तृतीयोऽधिकारः ॥३॥ त्रिपृष्ठ नारायणके वियोगसे समस्त देह, भोग और राज्याक्सेि विरक्त होकर उस पुण्यबुद्धि विजय बलभद्रने मुनिदीक्षा ले ली और अतिघोर बहिरंग-अन्तरंग दोनों प्रकारका तप करके पुनः ध्यानरूपी खड्गसे समस्त कर्मरूपी शत्रुओंको नष्ट कर और अनन्तचतुष्टयको प्राप्त कर तथा देवोंके द्वारा पूजाको पाकर अनन्तसुखके सागर, निरुपम, निराबाध एवं विश्व-वन्दित निर्वाणको प्राप्त हुआ ।।१४६-१४८|| इस प्रकार उत्तम चारित्रके भोगसे एक भाई सर्वसांसारिक सुखोंको भोगकर जगत्के अग्रभागपर स्थित मोक्षरूप सत्पदको प्राप्त हुआ। और दूसरा भाई खोटे आचरणसे उपार्जित पापके विपाकसे अन्तिम पातालके छिद्र स्वरूप सप्तम नरकको प्राप्त हुआ। ऐसा जानकर हे चतुर मनुष्यो, सारभूत चारित्रका आचरण करो ॥१४९॥ यह धर्मरूपी तीर्थ सर्वदुःखोंका निवारक है, शिव-कारक है, कर्मरूप शत्रुओंका विध्वंसक है, अनन्त गुणोंका सागर है, संसारका संहारक है, स्वर्ग-मुक्तिके सुखका भण्डार है। ऐसे धर्मरूप तीर्थके प्रवर्तक जगत्के ईश, तीन लोकको शरण देनेवाले सन्त जनोंसे वन्दनीय, उत्तम और पूज्य अन्तिम तीर्थंकर श्री वर्धमान जिनको मैं उनके गुणोंकी सिद्धिके लिए वन्दना करता हूँ ॥१५॥ इस प्रकार भट्टारक श्री सकलकीति-विरचित इस वीर वर्धमानचरितमें उनके स्थूल चार भवोंका वर्णन करनेवाला तीसरा अधिकार समाप्त हुआ ॥३॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy