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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री-वीरवर्धमानचरिते [३.१३२उत्पाटयन्ति केचिच्च तस्य नेत्रे परे खलाः । विदारयन्ति सर्वाङ्गं त्रोटयन्त्यन्त्रमालिकाम् ॥१३२॥ निघृणाः क्वाथयन्त्यन्ये कृत्वास्याङ्गं तिलोपमम् । केचिच्छस्त्रेण कृन्तन्त्यङ्गोपाङ्गान्यखिलानि च ॥१३॥ आगत्योक्षिप्य त केचित्तप्ततैलकटाहके । प्रपूत्कारं प्रकुर्वाणं न्यक्षिपन् दाहहेतवे ॥१३॥ तेन सर्वाङ्गदग्धोऽस्मात्सोऽतीवदाहपीडितः । वैतरण्या जले गत्वा न्यमजत्त प्रशान्तये ॥१३५॥ तत्रातिक्षारदुर्गन्धतोयोाद्यैः कदर्थितः । असिपत्रवनं सोऽगाद्विश्रामायातिदुःकरम् ॥ १३६॥ तस्य वायुवशात्तीक्ष्णरसिपत्रमर्दुच्युतैः । छिन्नभिन्न मभूत्तस्य बीभत्सं गात्रमासा ॥ १३७ ॥ ततोऽतिखण्डिताङ्गोऽसौ दीनः कृत्स्नासुखाब्धिगः । तदुःखशान्तये गत्वा प्राविशत्पर्वतान्तरम् ॥१३८॥ तत्रापि पापिभिः करैर्नारकैर्विक्रियावलात् । व्याघ्रसिंहादिरूपायैः प्रारब्धः खादितुं च सः ॥१३९॥ इत्यादिविविधं घोरं कविवाचामगोचरम् । भुङक्त त्यक्तोपमं दुःखं पापपाकेन सोऽन्वहम् ॥१४०॥ सर्वाब्धिसलिलासाध्यातृषाभिस्तृषितोऽपि सः । बिन्दुमात्रं जलं पातुं लभते न कदाचन ॥१४॥ विश्वान्न भक्षणाशाम्या क्षुधया स बुभुक्षितः । तिलमानसमाहारं प्राप्नोति नाशितुं क्वचित् ॥१४२॥ लक्षयोजनमानोऽयःपिण्डः क्षिप्तोऽत्र केनचित् । द्रुतं शीततुषारेण शतखण्डं प्रयात्यहो ॥१४३॥ इत्याद्यन्यन्महादुःखं कायवाङ्मनसोद्भवम् । परं परस्परोदीरितं क्षेत्रोत्पन्नमञ्जसा ॥१४॥ भुङ्क्ते सोऽन्वहमत्यन्तं पापपाकेन रौद्रधीः । त्रयस्त्रिंशत्समुद्रायुः कृष्णले श्यः सुखातिगः ॥१४५॥ कितने ही दुष्ट नारकी उसके नेत्र उखाड़ने लगे, कितने ही उसके सर्व अंगका विदारण करने लगे और कितने ही उसकी आँतों की आवलीको बाहर निकालने लगे। कितने ही निर्दयी नारकी उसका क्वाथ ( काढ़ा) बनाने लगे, कितने ही शस्त्रोंके द्वारा उसके शरीरको तिल समान खण्ड-खण्ड करने लगे। कितने ही नारकी उसके सर्व अंग और उपांगोंको काटने लगे। कितनोंने आकर चिल्लाते हुए उसे उठाकर तप्त तेलके कड़ाहमें पकानेके लिए डाल दिया। इससे उसका सर्वांग जल गया और वह अत्यन्त दाहसे पीड़ित होकर वहाँसे निकल कर शान्ति पाने के लिए वैतरणीके जल में जाकर डूबा। उसके अत्यन्त खारे, दुर्गन्धित पानी की लहरों आदि से पीड़ित होकर विश्राम पाने के लिए वह अतिदुष्कर असिपत्रवनमें गया ।।१३२-१३६।। वायुके वेगसे गिरे हुए उस वनके वृक्षोंके तलवारकी धारके समान तीक्ष्ण पत्तोंसे उसका शरीर छिन्नभिन्न होकर निश्चयतः अति भयानक हो गया ॥१३७।। तब अति खण्डित शरीरवाला वह दीन नारकी सर्व दुःखोंके समुद्रमें डुबकी लगाता हुआ उस दुःखकी शान्तिके लिए पर्वतके मध्यभागमें प्रविष्ट हुआ। वहाँपर भी पापी क्रूर नारकी विक्रियाके बलसे व्याघ्र, सिंह, रीछ आदिके रूप बनाकर उसे खाने लगे। इनको आदि लेकरके अनेक प्रकारके कविके वचन-अगोचर, उपमा-रहित दुःखोंको वह नारकी पापके विपाकसे निरन्तर भोगने लगा ॥१३८-१४०।। सभी समुद्रोंके जल-पानसे भी नहीं शान्त होनेवाली प्याससे पीड़ित रहते हुए भी उसे कभी एक बिन्दु जल पीनेके लिए नहीं मिला । संसारके समस्त अन्नके भक्षणसे भी नहीं शान्त होनेवाली भूखसे पीड़ित होनेपर भी कभी तिल-प्रमाण भी आहार खानेके लिए नहीं मिला ॥१४१-१४२॥ उन नरकोंमें शीत वेदना इतनी अधिक है कि यदि एक लाख योजनके प्रमाणवाला लोहेका गोला किसीके द्वारा वहाँ डाल दिया जाये तो वह वहाँके अति शीत तुषारसे अहो शीघ्र ही शतधा खण्ड-खण्ड हो जाये ॥१४३॥ इन दुःखोंको आदि लेकर उन नारकियोंके परस्परमें दिये गये शारीरिक, वाचनिक और मानसिक दुःखोंको तथा क्षेत्र-जनित असह्य महादुःखोंको वह रौद्रबुद्धि नारकी पापकर्मके विपाकसे निरन्तर भोगने लगा। वहाँपर त्रिपृष्ठके जीव उस नारकी की आयु तेतीस सागरोपम थी, कृष्ण लेश्या थी और वह सदा दुःखोंसे सन्तप्त रहता था ।।१४४-१४५।। For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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