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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थोऽधिकारः श्रीमते मुक्तिनाथाय स्वानन्तगुणशालिने । महावीराय तीर्थशे त्रिजगत्स्वामिने नमः ॥१॥ अथैष नारकः श्वनान्निर्गत्य स्वायुषः क्षये । वनिसिंहगिरौ सिंहो बभूवाशुभपाकतः ॥२॥ तन्त्राप्येन उपाज्योच्च हिमादिऋरकर्मभिः । तस्योदयेन स प्राप निन्द्यां रत्नप्रभावनिम् ॥३॥ अनुभय महादुःखमेकाब्ध्यन्तं ततो हि सः । च्युत्वा दुःकर्मबद्धात्मा द्वीपेऽस्मिन्नादिमे शुभे ॥४॥ भारते सिद्धकूटस्य प्राग्भागे हिमवगिरेः । सानावभून्मृगाधीशस्तीक्ष्णदंष्ट्रो मृगान्तकः ॥५॥ कदाचित्तं मृगैकस्य भक्षयन्तं ददर्श खे । गच्छन् भव्यहितोद्युक्तो यमी नाम्नाजितंजयः ॥६॥ चारणद्धिपरिप्राप्तो ह्यनेकगुणसागरः । सहामित गुणाख्येन मुनिना व्योमगामिना ॥७॥ स्मृत्वा तीर्थकरो सोऽवतीर्य नमसो महीम् । उपविश्य शिलापीठे कृपया चारणाग्रणीः ॥८॥ मृगाधिपं समासाद्य तद्धितायेत्युवाच वै । भो भो भव्य मृगाधीश शृणु पथ्यं मयोदितम् ॥९॥ त्रिपृष्ठेशभवे पूर्व त्वया भुक्ताः शुमोदयात् । भोगा मनोहराः सर्वेन्द्रियतृप्तिकराः पराः ॥१०॥ दिव्यस्त्रीभिः समं प्राप्य त्रिखण्डस्वामिजां श्रियम् । अतीवविषयासक्त्या मृत्यन्तं सद्-वृषाद्विना ॥११॥ तेभ्यो जातमहापापपाकेन विषयान्धधीः । मृत्वा त्वं सप्तमं श्वभ्रं गतो दुःकर्मचेष्टितः ॥१२॥ तत्र वैतरणी भीमा क्षारपूत्यपकुकर्दमाम् । प्रवेशितोऽतिपापिष्ठेस्त्वं प्राग्मजनजाघतः ॥१३॥ तप्तायःपिण्डनिर्घातैश्चूर्णितो नारकैबलात् । संतप्तलोहनारीभिः प्राप्तश्चालिङ्गनं मुहुः ॥१४॥ मुक्तिके नाथ, आत्मीय, अनन्तगुणशाली, त्रिजगत्स्वामी, तीर्थश श्रीमान् महावीर भगवानको नमस्कार हो ॥१॥ अथानन्तर वह त्रिपृष्ठ नारायणका नारकी जीव आयुके क्षय होनेपर वहाँसे निकलकर वनिसिंह नामक पर्वतपर पापके उदयसे सिंह हुआ ॥२॥ वहाँपर भी हिंसादि महाकर काँसे पापका उपार्जन कर उनके उदयसे वह निन्दनीय रत्नप्रभा नामकी प्रथम नरकभूमिको प्राप्त हुआ ॥३॥ वहाँपर एक सागरोपम काल तक महादुःखोंको भोगकर खोटे कर्मोंसे बँधा हुआ वह नारकी वहाँसे निकलकर इसी प्रथम शुभ जम्बूद्वीपमें भरत क्षेत्रके सिद्धकूट के पूर्वभागमें शिखरपर तीक्ष्ण दाढ़ोंवाला, मृगोंका यमरूप मृगाधीश सिंह हुआ ॥४५॥ किसी समय भव्योंके हितमें तत्पर, अनेक गुणोंके सागर, चारणऋद्धिके धारक अमितगुण नामक आकाशगामी मुनिके साथ आकाशमें जाते हुए अजितंजय नामके मुनिराजने उसे एक मृगको खाते हुए देखा ॥६-७|| तीर्थंकरदेवभाषित वचनका स्मरण कर वे चारण-ऋद्धिधारियोंमें अग्रणी मुनिराज दयासे प्रेरित होकर पृथ्वीपर उतरकर और एक शिलापीठपर उस सिंहके समीप बैठकर उसके हितार्थ इस प्रकार बोले-भो भो भव्य मृगराज, मेरे हितकारी वचन सुन ।।८-९।। तूने पहले त्रिपृष्ठ नारायणके भवमें पुण्यके उदयसे सर्व इन्द्रियोंको तृप्त करनेवाले, तीन खण्डकी साम्राज्यलक्ष्मीको पाकर दिव्य स्त्रियोंके साथ धर्मके विना परम मनोहर भोगोंको विषयान्ध बुद्धि होकर भोगा है ॥१०-११।। उन भोगोंके सेवनसे उत्पन्न हुए महापापके परिपाकसे मरकर तू सातवें नरकमें गया । वहाँपर दुष्कर्म की चेष्टावाले तुझे पापी नारकियोंने पूर्व जन्ममें स्नान करनेसे उत्पन्न हुए पापके फल स्वरूप खारे, पीव और कीचड़मय जलसे भरी हुई भयानक वैतरणीमें प्रवेश कराया ।।१२-१३।। उसी भवमें किये गये परस्त्रीसंगके पापसे For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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