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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तृतीयोऽधिकारः यस्यानन्तगुणा ब्याप्य त्रैलोक्यं हि निरर्गलाः । चरन्ति हृदि देवेशां गुणाप्त्यै स स्तुतोऽस्तु मे ॥१॥ अथेह मागधे देशे पुरे राजगृहामिधे । ब्राह्मणः शाण्डिलिर्नाम्ना तस्य पाराशरी प्रिया ॥२॥ भवभ्रमणतः श्रान्तः सोऽतिदुःखी ततस्तयोः । स्थावराख्यः सुतो जातो वेदवेदाङ्गपारगः ॥३॥ तत्रापि प्राक स्वमिथ्यात्वसंस्कारेण मुदाददे। परिव्राजकदीक्षां स कायक्लेशपरायणः ॥१॥ तेनाङ्गक्लेशपाकेन मृत्वासीदमरो दिवि । माहेन्द्रे सप्तवाायुः सोऽल्पश्रीसुखभोगभाक् ॥५॥ अथास्मिन् मागधे देशे पुरे राजगृहाह्रये । विश्वभूतिर्महीपोऽभूजैनी नाम्नास्य वल्लभा ॥६॥ तयोः स्वर्गात्स आगत्य विश्वनन्दी सुतोऽजनि । विख्यातपौरुषो दक्षः पुण्यलक्षगभूषितः ॥७॥ विश्वभूतिमहीभर्तुः सस्नेहोऽस्यानुजो महान् । विशाखभूतिनामास्य लक्ष्मणाख्या प्रियाभवत् ॥८॥ तयोः पुत्रः कुधीर्जातो विशाखनन्दसंज्ञकः । ते सर्वे पूर्वपुण्येन तिष्ठन्ति शर्मणा मुदा ॥९॥ अन्येधुः शरदभ्रस्य विनाशं वीक्ष्य शुभ्रधीः । विश्वभूतिनृपो भूत्वा निविण्णो हीत्यचिन्तयत् ॥१०॥ अहो यथेदमभ्रं हि विनाशमगमत्क्षणात् । तथायुयौवनादीनि मे यास्यन्ति न संशयः ॥११॥ भतो न क्षीयते यावत्सामग्री मुक्तिसाधने । यौवनायुर्बलाक्षाद्या तावत्कायं तपोऽनधम् ॥१२॥ aaaaaaaaaananaam जिस प्रभुके अनन्त गुण विना किसी रुकावट के तीनों लोकों में व्याप्त होकर देवेन्द्रोंके हृदयमें विचर रहे हैं, वे मेरे द्वारा स्तुति किये गये वीतरागदेव मेरे गुणोंकी प्राप्तिके लिए हों ॥१॥ अथानन्तर इस भारतवर्षके मगधदेशमें राजगृह नामके नगरमें शाण्डिलि नामका एक ब्राह्मण रहता था। उसकी प्रियाका नाम पाराशरी था। उन दोनोंके संसार-परिभ्रमणसे थका हुआ वह मरीचिका अतिदुःखी जीव स्थावर नामका पुत्र हुआ। बड़े होनेपर वह वेद-वेदाङ्गका पारगामी हो गया ॥२-३।। वहाँ पर भी अपने पूर्व मिथ्यात्वके संस्कारसे उसने सहर्ष परिव्राजक दीक्षा ग्रहण कर ली और कायक्लेशमें परायण होकर नाना प्रकारके खोटे तप करने लगा। उस कायक्लेशके परिपाकसे आयुके अन्तमें मरकर वह माहेन्द्र स्वर्ग में सात सागरोपम आयुका धारक और अल्प लक्ष्मीके सखका भोगनेवाला देव हआ॥४-५|| तत्पश्चात् इसी मगध देशमें और इसी राजगृहनगरमें विश्वभूति नामका राजा राज्य करता था। उसकी जैनी नामकी वल्लभा रानी थी। उन दोनोंके वह देवस्वर्गसे आकर विश्वनन्दी नामका पुत्र उत्पन्न हुआ। वह प्रसिद्ध पुरुषार्थवाला, दक्ष एवं पवित्र लक्षणोंसे भूषित था ॥६-७॥ विश्वभूति महीपतिके अतिप्यारा विशाखभूति नामका छोटा भाई था। उसकी लक्ष्मणा नामकी प्रिया थी ।।८। उन दोनों के कुबुद्धिवाला विशाखनन्द नामका एक पुत्र हुआ। ये सब पूर्व पुण्यके उदयसे सुखपूर्वक रहते थे ॥९॥ किसी अन्य दिन शरऋतुके मेघका विनाश देखकर वह निर्मल बुद्धिवाला विश्वभूति राजा संसार, देह और भोगोंसे विरक्त होकर इस प्रकार विचारने लगा-अहो, जैसे यह मेघ एक क्षणमें देखते-देखते विनष्ट हो गया, उसी प्रकार मेरे यह यौवन, और आयु आदिक भी विनाशको प्राप्त हो जायँगे, इसमें कोई सन्देह नहीं है ॥१०-११।। अतः जबतक यह यौवन, आयु, बल और इन्द्रियादिक सामग्री क्षीण नहीं होती है, तबतक मुक्तिके साधनमें निर्मल तपश्चरण करना चाहिए ।।१२।। For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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