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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री-वीरवर्धमानचरिते [२.१३७ वीरोऽनन्तसुखप्रदोऽसुखहरो वीरं श्रिता धीधना वीरेणाशु विनाश्यते भवभयं वीराय भक्त्या नमः । वीरान्मुक्तिवधूभवेद् वुधसतां वीरस्य नित्या गुणा वीरे मे दधतो मनोऽरिविजये हे वीर शक्तिं कुरु ॥१३७॥ इति भट्टारक-श्रीसकलकीर्तिविरचिते श्रीवीर-वर्धमानचरिते पुरूरवादि बहुभववर्णनो नाम द्वितीयोऽधिकारः ।।२।। वीर भगवान् अनन्त सुखके देनेवाले हैं और दुःखोंको हरण करते हैं, अतः ज्ञानीजन वीर प्रभुका आश्रय लेते हैं। वीर प्रभुके द्वारा भवभय शीघ्र विनष्ट हो जाता है, इसलिए भक्तिके साथ वीरनाथको नमस्कार हो। वीर भगवान के प्रसादसे ज्ञानी सन्तजनोंको मुक्तिवधू प्राप्त होती है, वीरनाथके गुण अक्षय हैं, अतः मैं वीरप्रभुमें अपने मनको धारण करता हूँ। हे वीरनाथ, कर्म-शत्रुओंको जीतनेके लिए मुझे शक्ति दो ॥१३७॥ इस प्रकार भट्टारक श्री सकलकीति-विरचित इस वीर वर्धमान चरित्र में पुरूरवा आदि अनेक भवोंका वर्णन करनेवाला यह दूसरा अधिकार समाप्त हुआ ।।२।। For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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