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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २० श्री-वीरवर्धमानचरिते [३.१३इत्यादिचिन्तनादाप्य संवेगं द्विगुणं नृपः । भवभोगाङ्गलक्ष्म्यादौ दीक्षां गृहीतुमुद्ययौ ॥१३॥ तरक्षणं विधिना राज्यं स्वानुजाय ददौ पुनः । यौवराज्यं स्वपुत्राय स्नेहाच्च नृपसत्तमः ॥१४॥ ततो गत्वा जगद्वन्धे श्रीधराख्यं मुनीश्वरम् । प्रगम्य शिरसा त्यक्त्वा बाह्यान्तरपरिग्रहान् ॥१५॥ त्रिशुद्धया संयम भूपो जग्राह देवदुर्लभम् । मुक्तये भूमिपैः साधं त्रिशतै रागदूरगैः ॥१६॥ ततो हस्वाक्षमोहादीन् ध्यानखड्गेन संयमी । उग्रोग्रं स तपः कर्तुमुपयौ कर्मघातकम् ॥१७॥ अथान्यदा निजोद्याने विश्वनन्दी मनोहरे । क्रीडां कुर्वन् स्वदेवीभिः समं स्वलीलया स्थितः ॥१८॥ तं रम्यं च तदुद्यानं दृष्टा तन्मोहमोहितः । विशाखनन्द आसाद्येत्यवादीत् पितरं निजम् ॥१९॥ विश्वनन्दिन उद्यानं तात मह्यं प्रदीयताम् । अन्यथाहं करिष्यामि विदेशगमनं ध्रुवम् ॥२०॥ तदाकण्यं नृपो मोहादित्याह सुत तेऽचिरात् । उपायेन वनं सस्प दास्यामि तिष्ठ साम्प्रतम् ॥२१॥ प्रपञ्चेनान्यदा भूप आइय विश्वनन्दिनम् । इत्याख्यद् राज्यभारोऽयं स्वया भद्राय रायताम् ॥२२॥ अहं चोपरि गच्छामि प्रत्यन्तवासिभूभृतः । तज्जातक्षोमशान्त्यर्थ स्वदेशस्य सुखाप्तये ॥२३॥ तच्छुत्वा कुमारोऽवोचत् पूज्य त्वं तिष्ठ शर्मणा। अहं गत्वा मवत्प्रेष्यं करोमीत्थं त्वदाज्ञया ॥२४॥ इति प्रार्थ्य तदादेशं स्वसैन्येन समं रिपून् । विजेतुं निर्ययौ तस्माद्-विश्वनन्दी महाबली ॥२५॥ गते तस्मिस्तदुद्यानं ददौ राजा स्वसूनवे । अहो धिगस्तु मोहोऽयं यदर्थ क्रियतेऽशुभम् ॥२६॥ ज्ञात्वा तद्वचनां तद्वनपालप्रेषिताचरात् । विश्वनन्दी महाधारो हृदि स्वस्येत्यचिन्तयत् ॥२७॥ इत्यादि चिन्तवनसे राजा संसार, शरीर, भोग और लक्ष्मी आदिके विषयमें दुगुने संवेगको प्राप्त होकर दीक्षा ग्रहण करनेके लिए उद्यत हो गया।।१३।। उस उत्तम राजाने उसी समय अपने छोटे भाईको अतिस्नेहसे विधिपूर्वक राज्य दिया और अपने पुत्रको युवराज पद दिया ।।१४।। पुनः जगद्-वन्द्य श्री श्रीधर नामके मुनिराजके समीप जाकर और उन्हें मस्तकसे नमस्कार कर राजाने बाहरी और भीतरी सर्व परिग्रहको छोड़कर मन-वचन-कायकी शुद्धिपूर्वक देव-दुर्लभ संयम, मुक्तिके लिए रागको दूर करनेवाले तीनसौ राजाओंके साथ, धारण कर लिया ॥१४-१६।। तत्पश्चात् वह संयमी ध्यानरूपी खड्गसे मोह, इन्द्रिय आदि शत्रुओंका विनाश कर कर्म-घातक उप-महाउप्र तपश्चरण करनेके लिए उद्यत हुआ ॥१७॥ इधर किसी समय विश्वनन्दी अपने मनोहर उद्यानमें अपनी स्त्रियोंके साथ लीलापूर्वक क्रीड़ा करता हुआ स्थित था ।।१८।। उसे और उसके रमणीक उद्यानको देखकर उस उद्यानके मोहसे मोहित होकर विशाखनन्दने अपने पिताके पास जाकर यह कहा-हे तात, विश्वनन्दी का उद्यान मुझे दो । अन्यथा मैं निश्चयसे विदेश-गमन कर जाऊँगा ।।१९-२०|| उसकी यह बात सनकर राजा विशाखभतिने मोहसे प्रेरित होकर कहा-हे पत्र. मैं शीघ्र ही किसी उपायसे यह उद्यान तुझे दूंगा। अभी तू ठहर जा ।।२१।। इसके पश्चात् किसी दूसरे दिन राजाने किसी छल-प्रपंचसे विश्वनन्दीको बुलाकर कहा-हे भद्र, तुम यह राज्यभार ग्रहण करो, मैं सीमावर्ती राजाके ऊपर उससे उत्पन्न हुए क्षोभकी शान्तिके लिए तथा अपने देशकी सुख प्राप्तिके लिए जाता हूँ ॥२२-२३।। अपने काकाकी यह बात सुनकर विश्वनन्दी कुमारने कहा-हे पूज्य, आप सुखसे रहिए। मैं आपकी आज्ञासे जाकर उस शत्रुको आपका दास बनाता हूँ ॥२४॥ इस प्रकारसे प्रार्थना कर और उसकी आज्ञा लेकर अपनी सेनाके साथ शत्रुको जीतनेके लिए महाबली विश्वनन्दी वहाँसे चला गया ॥२५॥ उसके चले जानेपर राजा विशाखभूतिने वह उद्यान अपने विशाखनन्द पुत्रके लिए दे दिया। आचार्य कहते हैं कि ऐसे मोहको धिकार है कि जिससे प्रेरित होकर मनुष्य ऐसे पाप कार्यको करता है ॥२६॥ तत्पश्चात् वनपालके द्वारा भेजे गये गुप्तचरसे राजाकी यह प्रवंचना जानकर महाधीर विश्वनन्दी अपने हृदयमें इस प्रकार सोचने लगा-अहो, देखो इस मेरे काकाने मुझे शत्रुओं For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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