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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २.१३६] द्वितीयोऽधिकारः तत्कुज्ञानजसंवेगाद्दीक्षां त्रिदण्डमण्डिताम् । गृहीत्वा तपसा बदवा देवायुः स मृति ययौ ॥१२७॥ तत्फलेन बभूवासौ दिवि माहेन्द्रनामनि । धृत्वा सप्ताब्धिमानायुः स्वतपोऽर्जितशर्ममाक् ॥१.८॥ ततः प्रच्युत्य दुर्मार्गप्रकटीकृतजेनसः । महापापविपाकेन निन्धाः सर्वा अधोगतीः ॥१२९॥ प्रविश्यासंख्यवर्षाणि चिरं भ्रान्त्वा सुखातिगः । दुःकर्मशृङ्खलाबद्धवसस्थावरयोनिषु ॥ १३ ॥ सर्वदुःखनिधानेषु नानादुःखातिपीडितः । वचोऽतिगं महादुःखं मिथ्यात्वफछतोऽन्वभूत् ॥३१॥ वरं हुताशने पातो वरं हालाहलाशनम् । अन्धौ वा मजनं श्रेष्ठं मिथ्यात्यास च जीवितम् ॥३२॥ वरं न्याघ्रारिचौराहिवृश्चिकादिखलात्मनाम् । प्राणापहारिणां संगो न च मिथ्यारशां क्वचित् ॥१३३॥ एकतः सकलं पापं मिथ्यात्वमेकतस्तयोः । वदन्त्यत्रान्तरं दक्षा मेरुसर्षपयोरिव ॥१४॥ इति मत्वा न कर्तव्यं प्राणान्तेऽपि कदाचन । विश्वदुःखाकरीभूतं मिथ्यात्वं दुःखभीरुमिः ॥ १३५॥ इति कुपथविपाकाच्छर्मबिन्द्वाभमाप्य जलनिधिसमदुःखं चान्वभूत् स त्रिदण्डी । विजगति सुखकामा हीति मत्वा त्रिशुद्धया त्यजत निखिलमिथ्यामार्गमादाय दृष्टिम् ॥१३॥ स्वर्गसे चयकर भारद्वाज नामका पुत्र उत्पन्न हुआ। वह सदा कुशास्त्रोंके अभ्यासमें तत्पर रहता था। पुनः उस कुज्ञानसे उत्पन्न संवेगसे उसने तीन दण्डोंसे मण्डित त्रिदण्डी दीक्षा ग्रहण कर और तपसे देवायुको बाँधकर मरा और उसके फलसे माहेन्द्र नामके स्वर्गमें सात सागरोपम आयुका धारक और अपने तपसे उपार्जित पुण्यके अनुसार सुखको भोगनेवाला देव उत्पन्न हुआ ।।१२५–१२८|| तत्पश्चात् वहाँसे च्युत होकर और कुमार्गके प्रकट करनेसे उपार्जित महा पापकर्मके विपाकसे निन्द्य सभी अधोगतियोंमें प्रवेश करके असंख्यात वर्ष प्रमाण चिरकालतक सुखोंसे दूर और दुःखोंसे भरपूर होकर परिभ्रमण करता हुआ दुष्कर्मोंकी शृंखलासे वह सर्वदुःखोंके निधानभूत त्रस-स्थावरयोनियोंमें वचनोंके अगोचर नाना दुःखोंसे पीड़ित हो मिथ्यात्वके फलसे महादुःखको भोगता रहा ॥१२९-१३१॥ ___ आचार्य कहते हैं कि अग्निमें गिरना उत्तम है, हालाहल विषका पीना अच्छा है और समुद्र में डूबना श्रेष्ठ है, किन्तु मिथ्यात्वसे युक्त जीवन अच्छा नहीं है ।।१३२|| व्याघ्र, शत्रु, चोर, सर्प और विच्छू आदि प्राणापहारी दुष्ट प्राणियोंका संगम उत्तम है, किन्तु मिथ्यादृष्टियोंका संग कभी भी अच्छा नहीं है ।।१३३।।। ___ यदि एक ओर सर्वपाप एकत्रित किये जावें और दूसरी ओर अकेला मिथ्यात्व रखा जाये, तो ज्ञानीजन उनका अन्तर मेरु और सरसोंके दाने-जैसा कहते हैं। अर्थात् अकेला मिथ्यात्व पाप सुमेरुके समान भारी है और सर्व पाप सरसोंके समान तुच्छ हैं ॥१३४॥ इसलिए दुःखोंसे डरनेवाले मनुष्योंको समस्त दुःखोंके खानिस्वरूप मिथ्यात्वका सेवन प्राणान्त होनेपर भी कभी नहीं करना चाहिए ॥१३५॥ इस प्रकार मरीचिका जीव वह त्रिदण्डी कुपथ-(मिथ्यामार्ग-) प्रचारके विपाकसे बिन्दुके समान अत्यल्प सुखको पाकर समुद्रके समान महान् दुःखोंको असंख्यकाल तक कुयोनियोंमें भोगता रहा। ऐसा समझकर जो जीव तीन लोकमें सुखके इच्छुक हैं, उन्हें मान, वचन, कायकी त्रियोग शुद्धिपूर्वक सम्यग्दर्शन को ग्रहण करके समस्त मिथ्यामार्गको छोड़ देना चाहिए ॥१३६॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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